महाकवि क्षेम : जौनपुर की काव्यधारा का अमर स्तंभ “महाकवि के चरणों में क्या भेंट करूं?”

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जौनपुर की साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में डॉ. श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’ का नाम सदा स्मरणीय रहेगा। छायावादोत्तर गीतिधारा के भाववादी गीतकार और हिंदी काव्य के सशक्त स्तंभ साहित्य वाचस्पति डॉ. क्षेम के गीतों और कविताओं में शब्दों का ऐसा प्रवाह है, जिसमें स्नान करने मात्र से हिंदी प्रेमियों को तृप्ति मिलती है। उनकी रचनाओं का माधुर्य आज भी जनमानस के कंठहार के रूप में गूंजता है।

जन्म और शिक्षा:

डॉ. क्षेम का जन्म 2 सितंबर 1922 को बसारतपुर (जौनपुर) में हुआ। वे श्रीमती रमापति देवी और श्री लक्ष्मीशंकर सिंह की दूसरी संतान थे। ग्राम्य परिवेश और करुणामयी मां की भावुकता ने उनके मन को संवेदनशील बनाया, जबकि पिता के पारंपरिक संस्कारों ने उन्हें मूल्यनिष्ठ।
प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही उनकी कविताई प्रतिभा प्रकट हो गई। 1943 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. (हिंदी, अंग्रेजी, राजनीति शास्त्र) और तत्पश्चात एम.ए. (हिंदी) की उपाधि प्राप्त की। अध्यापन क्षेत्र में उन्होंने तिलकधारी इंटर कॉलेज से यात्रा शुरू की और बाद में हिंदी विभागाध्यक्ष बने।

शोध और अध्यापन:

छायावादी काव्य के प्रति गहरी अभिरुचि के चलते उन्होंने 19 फरवरी 1979 को काशी विद्यापीठ से “छायावादी काव्य की लोकतांत्रिक पृष्ठभूमि” पर शोध कार्य पूरा किया। 1983 में प्राध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए, लेकिन साहित्य साधना जीवनभर चलती रही।

प्रमुख कृतियां:

काव्य कृतियां : जीवन-तरी, नीलम ज्योति और संघर्ष, रूप तुम्हारा: प्रीति हमारी, अंतर्ज्वाला, राख और पाटल, रूप गंधा: गीत गंगा, कृष्ण द्वैपायन (महाकाव्य)

कहानियां : भावना का शव, बूढ़ा बरगद, झोपड़ी, नीम का पेड़

समीक्षा/निबंध : छायावादी काव्य की प्रवृत्तियां, छायावाद का शास्त्रीय परीक्षण

शोध ग्रंथ : छायावाद की काव्य साधना, छायावाद के गौरव-चिह्न, छायावादी काव्य की लोकतांत्रिक पृष्ठभूमि

काव्य की विशेषताएं

क्षेम जी के गीतों में श्रृंगार, करुणा और मानवता का अद्भुत संगम है—

“तुम कस्तूरी केश न खोलों, सारी रात महक जाएगी…”

“जन्म से महत्व का निदान है उचित नहीं, कर्म से वरत्व का विधान होना चाहिए।”

“मन की गांठें बंधी पहले खोलो, प्यार से पहले मन को तो धो लो…”

उनकी पंक्तियां केवल सौंदर्यबोध नहीं जगातीं, बल्कि कर्म, संस्कार और मानवता का पाठ भी पढ़ाती हैं।

साहित्यकारों की दृष्टि:
अमित श्रीवास्तव (सिराज-ए-दिल जौनपुर के रचनाकार) मानते हैं कि क्षेम के गीतों में महादेवी वर्मा की प्रेरणा और प्रसाद की रूपक-शैली का आभास होता है, वहीं विद्यापति जैसी मांसलता भी मिलती है।

कृष्ण द्वैपायन महाकाव्य के सम्बोध-सर्ग में की पंक्तियां हैं…
“कर्मों के परिणामों से कोई मुक्त नहीं,
संस्कार कर्म के जन्मान्तर तक जातें हैं,
शुभ काम आत्म-गंगाजल का हैं पुण्य-कलश,
संस्कार उसी में घुल मिलकर लहराते हैं।”

डॉ.क्षेम उद्घोष करते हैं..
“मन की गाॅंठे बॅंधी पहले खोलो।
प्यार से पहले मन को तो धोलो।।
देश को फूल देना कठिन है।
पहले आंगन में ही फूल बोलो ।।”

सुकवि विश्वनाथ लाल ‘शैदा’ का मुक्तक –
“कोई माने या न माने,हमको इसका डर नहीं
झूठ के आगे झुके, वह हमारा सर नहीं
गीत लिखने के लिए तो, गीत लिखते हैं सभी
किंतु लिखता गीत कोई, ‘क्षेम’ से सुंदर नहीं।”

निष्कर्ष:
डॉ. क्षेम ने हिंदी काव्यधारा को नई ऊंचाई दी। उनके गीत जहां श्रृंगार की सुगंध बिखेरते हैं, वहीं मानवता और कर्मशीलता का दीप भी प्रज्वलित करते हैं। वे जौनपुर की काव्य परंपरा के ऐसे अमर स्तंभ हैं, जिनकी गूंज सदियों तक साहित्यप्रेमियों के हृदय में बनी रहेगी।

✍️ अश्वनी कुमार तिवारी
(शोध छात्र, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर)

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