डॉ. दिलीप कुमार सिंह, मौसम विज्ञानी एवं ज्योतिष शिरोमणि जौनपुर।
सनातन परंपरा में देव शिल्पी भगवान विश्वकर्मा को सृष्टि का प्रथम अभियंता, वास्तु एवं शिल्प विद्या के जनक तथा अद्भुत रचनाओं के सृजक के रूप में जाना जाता है।
पुराणों में वर्णित है कि भगवान विश्वकर्मा के पिता का नाम वास्तुदेव, माता का नाम अंगिरसी तथा दादा का नाम धर्म था। कहीं-कहीं उन्हें स्वयं ब्रह्मा अथवा शिव का पुत्र भी माना गया है।
वेद, पुराण और उपनिषदों में इनके दिव्य कार्यों का व्यापक उल्लेख मिलता है। सतयुग से लेकर द्वापर तक, भगवान विश्वकर्मा ने असंख्य दिव्य और कल्पनातीत रचनाएँ कीं।
विश्वकर्मा जयंती : कब और क्यों?
सनातन धर्म के पंचांग के अनुसार भगवान विश्वकर्मा की जयंती आश्विन मास की चतुर्दशी को मनाई जाती रही है। किंतु कालांतर में इसे 17 सितंबर को स्थिर कर दिया गया, जिसे लेकर विद्वानों में मतभेद है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कभी मकर संक्रांति को स्थायी रूप से 14 जनवरी को मान लिया गया था।
विश्वकर्मा जयंती पर कारखानों, दुकानों, उद्योगों और संस्थानों में विशेष पूजा होती है। लोग अपने औजारों, मशीनों और यंत्रों की सजावट कर विधिवत पूजन करते हैं। जाति-धर्म से परे हर वर्ग इस पर्व में सम्मिलित होता है।
देव शिल्पी की अद्भुत रचनाएँ:
भगवान विश्वकर्मा ने ऐसे निर्माण कार्य किए जो आज भी मानव बुद्धि की सीमाओं से परे हैं। इनमें प्रमुख हैं –
सोने की लंका : समुद्र के मध्य स्थित स्वर्णमयी नगरी, जिसे बाद में रावण ने शिव को प्रसन्न कर प्राप्त किया।
अमरावती नगरी : देवताओं की स्वर्गनगरी, जिसमें पारिजात, कल्पवृक्ष और कामधेनु जैसी दिव्य संपदाएँ थीं।
इंद्रप्रस्थ और दिव्य सभा भवन : कृष्ण के आवाहन पर निर्मित यह सभा इतनी विचित्र थी कि जल और स्थल की पहचान तक दुर्योधन से न हो पाई।
इंद्र का वज्र : विद्युत की शक्ति से निर्मित वह दिव्य अस्त्र जिसने इंद्र को अजेय बना दिया।
अदिति के कुंडल : ऐसे दिव्य आभूषण जो कभी नष्ट न होते और सदा प्रकाशमान रहते।
द्वारका नगरी : समुद्र के बीचोबीच निर्मित कृष्ण की नगरी, जो वास्तुकला और सुरक्षा की दृष्टि से अप्रतिम थी। कृष्ण के महाप्रयाण के पश्चात यह नगरी समुद्र में विलीन हो गई, जिसके अवशेष आज भी समुद्रतल में विद्यमान हैं।
क्यों अद्वितीय हैं विश्वकर्मा?
विश्वकर्मा को केवल देव शिल्पी नहीं, बल्कि अभियांत्रिकी और वास्तुकला के परमाचार्य माना जाता है।
उन्होंने अस्त्र-शस्त्र, दिव्यास्त्र, नगर-नगरी और दिव्य भवन रचे, जो आधुनिक विज्ञान और तकनीक की सीमा से कहीं आगे प्रतीत होते हैं।
आज भी वास्तुशास्त्र उनके ज्ञान का प्रमाण है और हर निर्माण कार्य में उनका स्मरण किया जाता है।
निष्कर्ष:
देव शिल्पी भगवान विश्वकर्मा का व्यक्तित्व और कृतित्व अद्वितीय है। वे सृष्टि के प्रथम अभियंता ही नहीं, बल्कि शाश्वत काल तक मानवता के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
उनकी जयंती पर केवल पूजा-अर्चना ही नहीं, बल्कि उनके योगदान को स्मरण कर आधुनिक विज्ञान और तकनीक के साथ जोड़ने की आवश्यकता है।
न भूतो, न भविष्यति – भगवान विश्वकर्मा की महिमा सदैव अक्षुण्ण रहेगी।