पितृपक्ष: पूर्वजों की स्मृति और श्रद्धा का महापर्व

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भारतीय संस्कृति में पितृपक्ष का विशेष महत्व है। धर्मग्रंथों से लेकर पुराणों और लोककथाओं तक, हर जगह पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने और तर्पण-श्राद्ध के महत्व का विस्तार से उल्लेख मिलता है।

ऋग्वेद (10/4/1), श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 9, श्लोक 25), ब्रह्मपुराण, मार्कंडेयपुराण और गरुड़पुराण तक-सभी शास्त्र पितरों के सम्मान और श्राद्ध की परंपरा पर बल देते हैं। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि “जो जिस भाव से पूजा करता है, उसे उसी प्रकार का फल प्राप्त होता है।”

तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान

तर्पण – जल, दूध, तिल, कुश और फूल अर्पित कर पूर्वजों को स्मरण करने की सरल विधि।

श्राद्ध – तर्पण का विस्तृत रूप, जिसमें पिंडदान, दान-पुण्य और भोजन कराया जाता है।

पिंडदान – अन्न को पिंड स्वरूप समर्पित कर पितरों को अर्पण करना।

लोक मान्यता है कि जैसे किसी जड़ी-बूटी से उसका अर्क निकाला जाता है, वैसे ही पितर अन्न का सूक्ष्म अंश ग्रहण करते हैं।

तर्पण की विधि:

सुबह स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण कर दक्षिणमुख होकर दूध-जल मिश्रित अर्पण किया जाता है। हाथ में कुश, अक्षत, सफेद पुष्प लेकर अंजलि से जल छोड़ते समय “ॐ पितृभ्यः स्वाहा” या “ॐ सर्वपितृ प्रसन्नो भव” मंत्र का उच्चारण किया जाता है।

कौन कर सकता है श्राद्ध?

धर्मशास्त्रों के अनुसार पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, पत्नी, पुत्री, बहू, नाती, नानी आदि क्रम से श्राद्ध कर सकते हैं। अगर परिवार में कोई न हो तो घर की स्त्रियां भी श्रद्धा से यह कर्तव्य निभा सकती हैं।

पितरों की प्रसन्नता के लक्षण

जब पितर संतुष्ट होते हैं तो घर-परिवार में सुख-समृद्धि, संतान-प्राप्ति, शांति और प्रसन्नता का वातावरण बनता है। वहीं असंतोष की स्थिति में रोग, क्लेश और आर्थिक संकट आने लगते हैं।

पितृपक्ष में वर्जित कार्य:

विवाह, मंगल कार्य और भव्य उत्सव नहीं करना चाहिए।
अत्यधिक मसालेदार भोजन से बचना चाहिए।
अनावश्यक श्रृंगार और भद्दे गीत-संगीत से दूरी रखनी चाहिए।

झूठी मान्यताओं जैसे “15 दिन नहाना-धोना या पूजा-पाठ करना वर्जित है” को त्याग देना चाहिए।
वास्तव में पवित्रता, स्वच्छता और सादगी ही पितृपक्ष का मूल भाव है।

भ्रांतियों का निराकरण

पितृपक्ष में देवी-देवताओं की पूजा वर्जित नहीं है, केवल धूप-दीप और गंध का प्रयोग न करने की सलाह दी गई है ताकि पितरों का प्रवेश सरलता से हो सके। व्रत-पूजा यथावत जारी रखी जा सकती है, पर सादगी के साथ।

निष्कर्ष:
पितृपक्ष हमें यह याद दिलाता है कि हमारी जड़ें हमारे पूर्वजों में हैं। उनके आशीर्वाद से ही परिवार और समाज की समृद्धि संभव है। अतः भ्रांतियों से दूर रहकर श्रद्धा, सादगी और शुद्ध भाव से तर्पण-श्राद्ध करना ही सच्ची संतति का धर्म है।

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