“परंपरा से नाता तोड़, नुकसान की राह पर हम” – दोना-पत्तल की जगह थर्माकोल क्यों?

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“प्रकृति के प्रेम को विस्मृति कर, हमने चुना प्लास्टिक का ज़हर”

पूर्वांचल लाइफ निशांत सिंह
जौनपुर। मछलीशहर

एक ज़माना था जब शादी-ब्याह, पर्व-त्योहार या किसी भी भोज में दोना-पत्तल और पानी पीने के लिए कुल्हड़ का उपयोग स्वाभाविक था। पलाश, महुए और सागौन की पत्तियों से बने इन बायोडिग्रेडेबल बर्तनों में भोजन करना न केवल संस्कृति का हिस्सा था, बल्कि प्रकृति के साथ हमारा संतुलन भी दर्शाता था। मगर अब यह दृश्य दुर्लभ होता जा रहा है।

आज की पीढ़ी, आधुनिकता की अंधी दौड़ में इसे ‘पुरानी सोच’ का प्रतीक मानकर त्याग चुकी है। थर्माकोल और प्लास्टिक से बने बर्तनों ने दोना-पत्तल ग्लास की जगह ले ली है। इसका एकमात्र कारण है – तात्कालिक सस्ता विकल्प होना। पर सवाल यह है: क्या सस्ता विकल्प वाकई ‘सही’ विकल्प है?

थर्माकोल की कीमत, सेहत से चुकानी पड़ रही है:
थर्माकोल के बर्तनों में जिस केमिकल से सिल्वर कोटिंग की जाती है, वह हमारे शरीर में पहुंचकर कई तरह की बीमारियों को जन्म देता है। डॉक्टरों का कहना है कि इससे पाचन तंत्र पर बुरा असर पड़ता है, और लंबे समय तक इसके उपयोग से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है।

एनजीटी (राष्ट्रीय हरित अधिकरण) ने हाल ही में चीनी और नमक में माइक्रो प्लास्टिक की मौजूदगी को लेकर स्वत: संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार से रिपोर्ट मांगी है। विशेषज्ञों का मानना है कि माइक्रो प्लास्टिक का शरीर में प्रवेश आंतों की सूजन, त्वचा रोग और दीर्घकालिक बीमारियों का कारण बन सकता है।

एक प्रयास – मिट्टी और पत्तल के बर्तनों में बच्चों की बर्थडे पार्टी
इन सबके बीच मछलीशहर विकासखंड के एक गांव में शनिवार को आयोजित एक अनोखी बर्थडे पार्टी सुर्खियों में रही, जहाँ बच्चों को मिट्टी और पत्तल के बर्तनों में पारंपरिक भारतीय भोजन परोसा गया।

आयोजक ने बताया, “इनमें से ज़्यादातर बच्चे पहली बार ऐसे बर्तनों में खा रहे थे। हमारा मकसद था उन्हें हमारी परंपराओं से परिचित कराना। अपनाना-न अपनाना उनका निर्णय होगा, लेकिन हम उन्हें उनकी जड़ों से जोड़ने की पहल कर सकते हैं।”

जड़ों से जुड़ने में ही है टिकाऊ भविष्य:
पत्तल और दोना सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि प्रकृति से जुड़ाव का माध्यम हैं। ये पूरी तरह जैविक होते हैं और उपयोग के बाद खाद में बदल जाते हैं। इनका इस्तेमाल न सिर्फ पर्यावरण को सुरक्षित रखता है, बल्कि ग्रामीणों को रोज़गार भी देता है।

एक ओर सरकारें पर्यावरण सुरक्षा की नीतियाँ बना रही हैं, वहीं आम नागरिकों की भी जिम्मेदारी है कि वे छोटे-छोटे निर्णयों से बड़े बदलाव लाएँ। दोना-पत्तल को फिर से अपनाना एक ऐसा ही कदम हो सकता है।

क्या अगली बार आपकी थाली में फिर लौटेगी पत्तल?

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