खुद को ही समझ न पाया हूँ
अब तलक…ज़माने में प्यारे…पर…
देखो तो सही…आजकल….
हर किसी को परखने लगा हूँ….
डर समाया है जमाने से इतना,
कि….किसी अनहोनी के डर से…!
अपनों पर अक्सर बिफरने लगा हूँ..
विकास के इस दौर में प्यारे,
ख्वाहिशों ने भी कुछ भाव ऐसे भरे
कि….कमजोर-बेजार को भी….
अनायास ही…मैं पटकने लगा हूँ…
हर-समय लगता है यही…
कि…अपनों ने ही….!
बिछा रखा है जाल का डेरा…
इसलिए प्यारे….पंख अपने….
मैं खुद ही कतरने लगा हूँ….
दुनियावी तानों की तपिश….!
इस क़दर है चढ़ी… कि…
बिना आग के ही सुलगने लगा हूँ….
हालात भी कुछ ऐसे हुए हैं प्यारे…
कि…आदमी के घाव पर….!
नमक छिड़क…हँसने लगा हूँ…
देखता हूँ….चिढ़ा रहा है….
यहाँ….पाप ही पुण्य को….
अच्छा-भला आदमी था प्यारे
देख कर इसे..बे-मौत मरने लगा हूँ…
और क्या ही कहूँ…तुमसे ऐ ज़िन्दगी…
जाने क्यों….सँवरने से पहले ही….
तेजी से…बिखरने लगा हूँ…
शिकायत तो तुमसे बहुत है ज़िन्दगी,
पर….तेरे ही सिखाये पर…
मज़बूत इतना तो हो गया हूँ …कि..
लोगों की नज़रों में खटकने लगा हूँ..
रोता नहीं हूँ कभी….!
दुनिया के सामने….पर…
कमज़ोर इतना तो हो ही गया हूँ
कि..अकेले में अब सिसकने लगा हूँ।
रचनाकार…..
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ