पूर्वांचल लाइफ/अश्वनी तिवारी
सन् 1857 के विप्लव ने जब अंग्रेजों की हालत खराब कर दी थी, तो अग्रेजों ने इसकी समीक्षा की और पाया कि इस विद्रोह का सबसे बड़ा स्रोत सेना थी। तब उन्होंने सेना में फूट डालने की नीति अपनाई। बंगाली और उत्तर भारतीय सैनिकों को कम किया क्योंकि इन्होंने ही विद्रोह किया था और उन सैनिकों की संख्या बढ़ाई जो अंग्रेजों की सहायता विद्रोह के दमन के लिए की थी। इनमें गोरखा,राजपूत और सिख प्रमुख थे। यही नहीं इन सैनिकों को लड़ाका और बहादुर जाति का कहा गया। यहीं से लड़ाका जाति की अवधारणा शुरू हुई। इसके लिए अग्रेजों ने अलग अलग रेजिमेंट बनाया –राजपूत रेजिमेंट, गोरखा रेजिमेंट, सिख रेजिमेंट आदि। इन रेजीमेंट्स की अलग-अलग पहचान बनाई गई और कहानियाॅं गढ़ी गई। अब अगर एक विद्रोह करता तो दूसरे को उसके खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता था। इसलिए इसके बाद सेना में विद्रोह नहीं हुआ, केवल 1945 में नौसैनिक विद्रोह को छोड़कर, वह भी अलग कारणों से था। जबकि नागरिक विद्रोह कई सालों चला। सेना में सभी रेजिमेंट अपनी अपनी शान दिखने में लगे रहे।
आजादी के बाद भी सेना में यही विभाजन वाली रेजिमेंट की व्यवस्था बनी हुई है। साथ ही उस समय जिन्हें पीठ में हाथ रखकर बहादुर घोषित किया गया था, वे आज भी बहादुर बनने का ताल ठोक रहे हैं। सिनेमा के द्वारा इन बहादुर जातियों का इतना प्रचार किया गया कि लोग भी यही सोचते हैं कि ये जातियां बहुत बहादुर हैं। इसीलिए एक फिल्म में एक डायलॉग था,’अगर कोई न डरे तो वह या तो शेर होगा या गोरखा’। इसलिए सेना का पुनर्गठन जरूरी है और औपनिवेशिक मानसिकता से प्रेरित लड़ाका जाति की संकल्पना भी उचित नहीं है।
-डाॅ० प्रशांत त्रिवेदी
असि०प्रो० राजनीति विज्ञान,
टीडीपीजी काॅलेज, जौनपुर,उ.प्र.।