सूर्य उपासना के पर्व छठ का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व
पूर्वांचल लाइफ/पंकज जायसवाल
जौनपुर। शाहगंज किसी भी धर्म से जुड़ा त्योहार अगर अपने अंदर आध्यात्मिकता समेटे होता है तो वैज्ञानिकता से भी मुॅंह नहीं मोड़ा जा सकता है, त्योहार को मनाने का एक विशेष प्रयोजन होता है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभप्रद होता है। आज हम बिहार सहित पूरे भारत वर्ष में मनाए जाने वाले महापर्व छठ के विषय में कुछ ऐसी जानकारी लेकर आए हैं जो जिसमें आध्यात्म के साथ विज्ञान भी है। छठ का पर्व पूरे देश में बड़ी धूम-धाम के साथ मनाया जाता। ये त्योहार दिवाली के 4 दिन बाद और पूरे 3 दिनों तक मनाया जाने वाला पर्व हैं। पहले दिन व्रती सुबह नहा धोकर नये वस्त्र धारण करती है तत्पश्चात शाकाहारी भोजन ग्रहण करती है इसे स्थानीय भाषा में “नहाय” “खाय” कहा जाता है।दूसरे दिन व्रती का उपवास रहता है। इस दिन अन्न व जल का सेवन नही किया जाता। शाम के समय चावल व गुड़ की बनी खीर खाया जाता है इसे स्थानीय भाषा मे “खरना” कहा जाता है।
छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण दिन तीसरा दिन होता है जिसमें प्रसाद के रूप में “ठेकुआ” बनाया जाता है। फल, गन्ना, चावल के बने लड्डू, तथा अन्य सामग्री को बास के बने टोकरी में सजा कर व्रती महिलाएँ नदी, तालाब या पोखरे में कमर तक पानी में खडी़ होकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देती है तथा संतान की लम्बी आयु की कामना करती है।
ये बहुत ही कठिन व्रत माना जाता है। क्योंकि इसमें व्रत रखने वाले को पूरे 36 घंटों तक भूखे प्यासे रहना पड़ता है। वैसे तो ये व्रत महिलाएं रखती हैं। मगर कुछ विशेष परिस्थितियों में पुरूष भी इस व्रत को रख सकते हैं। संभवतः यही एक अकेला ऐसा व्रत है जिसमें डूबते सूर्य की पूजा पहले की जाती है। छठ पूजा को लेकर जहां धार्मिक महत्व हमारे धार्मिक ग्रन्थों में बताया गया है तो वहीं दूसरी तरफ़ इसके पीछे वैज्ञानिक रहस्य भी शामिल है।तो आइए जानते हैं छठ के महापर्व के धार्मिक और वैज्ञानिक आधार क्या है?
छठ का धार्मिक महत्व धार्मिक ग्रन्थों में यह वर्णन मिलता है कि सबसे पहले इस व्रत को द्रोपदी ने किया जब पाण्डल जूए में अपना सब कुछ हार कर वन वन भटक रहे थे। तब श्रीकृष्ण के बताए अनुसार द्रोपदी ने इस व्रत को किया और माता छठी के आशीर्वाद से उन्हें उनका खोया हुआ राज्य वापस मिल गया। दूसरी प्रचलित कथा के अनुसार जब माता सीता और प्रभु राम चौदह वर्ष बाद अयोध्या वापस आए तो माता सीता ने इस व्रत का बिहार के मुंगेर जिले में नदी के तट पर पूरे विधि विधान से किया था, (संभवतः इसी कारण यह बिहार का एक प्रमुख महापर्व माना जाता है।) तभी से यह व्रत आम जनमानस के लिए प्रेरणास्रोत बना हुआ है।
षष्ठी देवी की कहानी धार्मिक ग्रंथों से पता चलता है कि षष्ठी देवी को सूर्य की बहन कहा गया है, मगर कुछ जगहों पर षष्ठी देवी को ईश्वर की मानस पुत्री देव सेना के रूप में भी परिचय कराया गया है। यह प्रकृति की मूल प्रवृत्ति के छठवें अंश से उत्पन्न हुई है इसीलिए इन्हें षष्ठी माता भी कहा जाता है। राजा प्रियवद की कहानी प्राचीन काल में एक महा प्रतापी राजा हुए जिनका नाम प्रियवद था। राजा को कोई संतान नहीं थी जिस कारण राजा व रानी बहुत दुखी रहते थे। महर्षि कश्यप के परामर्श पर राजा प्रियवद और रानी मालिनी ने पुत्र प्राप्ति के लिए हवन पूजन किया, जिसके फलस्वरूप रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया,मगर वह शिशु मृत पैदा हुआ था। पुत्र शोक में राजा ने अपने नवजात पुत्र के साथ ही अपने प्राण त्यागने का निश्चय किया। उसी समय भगवान् की मानस पुत्री देव सेना प्रकट हुई और राजा को रोकते हुए षष्ठी माता की पूजा करने का आदेश दिया जिनकी कृपा से राजा को पुत्र की प्राप्ति हुई।
जाति पाॅंति पर प्रहार करता है यह व्रत अगर सामाजिक ताना बाना के रूप में देखे तो यह पर्व जाति व्यवस्था पर बहुत गहरा प्रहार करता है जी हाँ यह सत्य है। जिस समय व्रती महिलाएँ जल में खडी़ हो कर सूर्य को अर्ध्य देती है उस समय जाति पाॅंति की सभी दिवारें धाराशायी हो जाती है सभी जाति की महिलाएँ एक साथ सूर्य को जल चढ़ाती है उस भीड़ में कौन किस जाति का है बता पाना मुश्किल होता है।
वैज्ञानिक आधार
छठ महज एक धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं, बल्कि इसमें विज्ञान भी छुपा है। जी हां,इस दिन व्रत करने वाले लोग शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार होते हैं, माना जाता है कि छठ पूजा के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली सभी वस्तुएँ शरद ऋतु में फायदेमंद होती हैं। मान्यताओं के अनुसार कार्तिक महीने में प्रजनन शक्ति बढ़ती है और गर्भवती महिलाओं के लिए विटामिन-डी बहुत ही आवश्यक होता है, तो ऐसे में अगर वो व्रत रखती है तो सूर्य पूजा से उनको बेहद फायदा होता है। अगर सूर्य को अर्घ्य देने की बात करें तो इसके पीछे रंगों का विज्ञान छुपा है। यदि इंसान के शरीर में रंगों का संतुलन बिगड़ जाता है तो बहुत सी बिमारियों का खतरा बढ़ जाता है। प्रातः सूर्यदेव को जल चढ़ाते समय शरीर पर पड़ने वाले प्रकाश से ये रंग संतुलित हो जाते हैं जिससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है और त्वचा रोग संबधित रोग भी कम होते है सूर्य की रोशनी से मिलने वाला विटामिन डी भी शरीर में पूरा होता है यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो षष्ठी के दिन एक विशेष खगोलीय बदलाव होता है तब सूर्य की पैरा बैगनी किरणें असामान्य रूप से एकत्र होती हैं और इनके दुष्प्रभावों से बचने के लिए सूर्य की ऊषा और प्रत्यूषा के रहते जल में खड़े रहकर अर्ध्य दिया जाता है और छठ व्रत किया जाता है। इसके साथ ही मान्यता है कि चतुर्थी को लौकी और चावल का सेवन करना भी शरीर को व्रत के अनुकूल तैयार करने की प्रक्रिया का हिस्सा है। पंचमी को निर्जला व्रत के बाद गन्ने के रस व गुड़ से बनी खीर पर्याप्त ग्लूकोज की मात्रा सृजित करती है। छठ में बनाए जाने वाले अधिकतर प्रसाद में कैल्शियम की भारी मात्रा मौजूद होती है, भूखे रहने के दौरान अथवा उपवास की स्थिति में मानव शरीर नैचुरल कैल्शियम का ज्यादा उपभोग करता है। प्रकृति में सबसे ज्यादा विटामिन-डी सूर्योदय और सूर्यास्त के समय होता है।इसलिए अर्घ्य का समय भी यही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि कटि तक जल में खड़े होकर डूबते और उगते सूर्य को देखना और अर्ध्य देना बहुत फायदेमंद होता है। इससे टाॅंक्सिफेकेन की प्रक्रिया होती है, ऐसा माना जाता है कि सूर्य की किरणों में सोलह कलाएँ होती है, जैसे स्कैटरिंग, डिस्पर्शन, वाइब्रेशन, रिफ्लेक्शन, डेविस्मन आदि जब सूर्य को जल दिया जाता है तो जल से परिवर्तित होकर जितनी बार हमारी आंखों तक पहुॅंचती है उससे हमारे स्नायुतंत्र जो शरीर को नियंत्रित करने का कार्य करते हैं वह सब सक्रिय हो जाते हैं और हमारी कार्य क्षमता बढ़ जाती है।
डिस्क्लेमर :- उपरोक्त दी गई सारी जानकारी प्रवचन, कथा, लोक मान्यता, एवं प्रचलित कथाओं पर आधारित है।