“अपनी डिग्री को बोरियों में भर” (ग़ज़ल)

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पड़ गया जो यहाँ झमेले में
भूल जाता है आया मेले में

चलना कहते मुहाल है जिनका
चाहते हैं पहाड़ ढेले में

झूठ-सच को मिलाते ए.आई.
पक्ष-प्रतिपक्ष वाले खेले में

जो ठहाके लगा के हँसता था
रो रहा है वही अकेले में

वक़्त, हिम्मत, के साथ पैसा भी
बहता बे- रोज़गारी रेले में

अपनी डिग्री को बोरियों में भर
बेचें संसद के पास ठेले में

“वंदना”
अहमदाबाद

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