झरे फूल गेहूँ के, रात ओल वृष्टि में, स्वागत कैसे मैं करूँ, फागुनी बरसात का ?

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रात भर पोस्ट दौड़ी,
फेसबुक पर याद वाली।
सर्कुलेट रील्स थीं,
प्रेमियों की बात वाली।

कमेंट ना किया कहीं,
क्या पता बुरा लगे,
लोगों को बात का।

प्रेम में लिखे जो गीत,
सबमें सीवान हैं।
सोने से खेत हैं,
फसलें जवान हैं।

अन्न की बखारी रोये,
छटपटाते प्राण हैं।
मन है व्यथित देख,
दुख किसान ज़ात का।

खेतिहर जो काका हैं,
फूआ हैं, काकी हैं।
दम से जिनके धरती पे,
खेत अभी बाकी हैं।

जब तुम्हारी याद में,
ठेकुआ बनाती हूँ।
स्वाद उतर आता है,
खेतिहर के हाथ का।

सोने की बालियों ,
से कीमती ये बालियाँ हैं।
गेंहूँ बिना आटा नहीं,
ऊर्जा की डालियाँ हैं।

पेट का बुताता आग ,
भरे पेट होता फाग ।
अन्न बिना मान नहीं,
मति,हाथ , लात का।

गेंहूँ के झरने से ,
सरसो हताश है।
मोकइचे की आँख देखो,
कितनी उदास है‌।

सन्नो का ब्याह क्या ?
राजू की पढ़ाई क्या ?
सामने आयेगा अब,
साँच नात बात का।

धन्नो की हँसुली भी,
हुई अब सेठ की ।
फगुनी बयार अब ,
आग लगे जेठ की।

आँखो में नाच रहा,
हरा भरा खेत वही।
मुस्की लगे है ,
अनेसा किसी घात का।

स्वागत करूं मैं कैसे
फागुनी बरसात का ?
मन है व्यथित देख
दु:ख किसान ज़ात का।

आकृति विज्ञा “अर्पण” वाराणसी “बीएचयू” “शोध छात्रा” (गोरखपुर) उ०प्र०

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