“संवाद”

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समझते नहीं हो
मेरे मन की बात ,
या फिर
बने रहते हो नासमझ ,
जान कर सारी बात,
सारे हालात।

क्या होता नहीं सबसे सरल ?
कह देना दिल की बात,
और सुन लेना
किसी के जज़्बात।

क्यों होता है कहना
कठिन
अपने मन के उद्गार?
क्यों बना रखा है
जटिल
संवाद का संसार ?

क्यों नहीं खोल देते
अपने हृदय के द्वार?
जब मात्र मनुष्य को ही
मिला है
संवाद का उपहार।

क्यों करता रहता है मनुष्य
स्वांग स्वयं से जीवन भर ?
और अभाव में संवाद के
खो देता है
सुख के स्वर्णिम अवसर।

मिल सकते थे दो प्रेमी दिल
हो सकते थे कई मसले हल
रुक सकते थे कितने युद्ध
होते न खड़े अपनों के विरुद्ध।
होता कितना सुखमय संसार,
यदि खुले रखते संवाद के द्वार।

सन्तोष कुमार झा, नई दिल्ली

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