जौनपुर : हिंदू पंचांग के अनुसार गुरुवार 19 सितंबर से पितरो के तर्पण का माह पितृपक्ष प्रारम्भ हो रहा। इसी माह में बिहार का बोध गया पितृपक्ष में तीर्थ स्थल बन जाता है। प्रचलित कथाओं के अनुसार परमपिता ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे उस दौरान उनसे गया नामक एक असुर प्रवृत्ति के देव की रचना हो गई। गया असुरों के संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था इसलिए उसमें आसुरी प्रवृति नहीं थी अतः वह देवताओं का सम्मान और आराधना करता था। वह सोचा करता था कि भले ही वह संत प्रवृति का है लेकिन असुर वृति में पैदा होने के कारण उसे देव सम सम्मान नहीं मिलेगा, इसलिए क्यों न अच्छे कर्म से इतना पुण्य अर्जित कर लिए जाए ताकि स्वर्ग मिले। गयासुर ने कठोर तप से भगवान श्री विष्णु को प्रसन्न किया। भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो गयासुर ने माँगा कि आप मेरे शरीर में वास करें। जो मुझे देखे उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं। वह जीव पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में स्थान मिले। भगवान ने तथास्तु कहा और श्री हरि विष्णु से वरदान पाकर गयासुर घूम-घूमकर लोगों के पाप दूर करने लगा। जो भी उसे देख लेता उसके पाप नष्ट हो जाते और स्वर्ग का अधिकारी हो जाता। इस तरह स्वर्ग में भीड़ बढ़ने लगी तो इंद्र आदि देव परेशाम हो उठे।इससे यमराज की भी व्यवस्था गड़बड़ा गई। कोई घोर पापी भी गयासुर के दर्शन कर लेता तो उसके पाप नष्ट हो जाते और वह स्वर्ग भोगने निकल जाता। यमराज उसे नर्क भेजने की तैयारी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग भोगने लगता। इंद्र और यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि अगर गयासुर को न रोका गया तो आपका वह विधान समाप्त हो जाएगा जिसमें आपने सभी को उसके कर्म के अनुसार फल भोगने की व्यवस्था दें रहें है क्यूंकि पापी भी गयासुर के प्रभाव से स्वर्ग भोंगेगे ! ब्रह्माजी ने उपाय निकाला, उन्होंने गयासुर को बुलवाया और उससे कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे ज्यादा पवित्र है इसलिए तुम्हारी पीठ पर बैठकर मैं सभी देवताओं के साथ कल्याणकारी यज्ञ करुंगा। उसकी पीठ पर कल्याणकारी यज्ञ होगा यह सुनकर वह विशालदैत्य गयासुर सहर्ष तैयार हो गया। ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ यज्ञ आरम्भ किए, इतने भार के बावजूद भी वह अचल नहीं हुआ, घूमने-फिरने में फिर भी समर्थ था।देवताओं को चिंता हुई तो उन्होंने श्री विष्णु से उपाय पूछा तो श्री हरि विष्णु ने कहा वरदान तो दिया हूँ किन्तु अगर मै स्वयं देवताओं के साथ बैठ जाऊ तो गयासुर अचल हो जाएगा क्यूंकि वह क्षीण होने लगेगा और फिर श्री हरि भी उसके शरीर पर आ बैठे। श्री विष्णु जी को भी सभी देवताओं के साथ अपने शरीर पर बैठा देखकर गयासुर ने कहा- आप सब और मेरे आराध्य श्री हरि की मर्यादा के लिए अब मैं अचल हो रहा हूं। लेकिन मुझे चूंकि श्री हरि का आशीर्वाद है इसलिए वह व्यर्थ नहीं जा सकता इसलिए श्री हरि आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं स्थापित कर दें। श्री हरि उसकी इस भावना से बड़े खुश हुए। उन्होंने कहा- गयासुर अगर तुम्हारी कोई और इच्छा हो तो मुझसे वरदान के रूप में मांग लो। गयासुर ने कहा- हे नारायण मेरी इच्छा है कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें और यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए।
श्री विष्णु ने कहा- गयासुर तुम धन्य हो तुमने लोगों के जीवित अवस्था में भी कल्याण का वरदान मांगा और पाषाण होने के बाद भी मृत आत्माओं के कल्याण के लिए वरदान मांग रहे। तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सब बंध गए हैं। भगवान ने आशीर्वाद दिया कि जहां गयासुर स्थापित हुआ वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा। मैं स्वयं यहां विराजमान रहूंगा। इस तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा। साथ ही वहा भगवान श्री विष्णुजी ने अपने पग निशान भी गया के पीठ पर स्थापित किया जो आज भी वहा के मंदिर मे दर्शनीय है। गया विधि के अनुसार पितरों का श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में, अक्षयवट के नीचे किया जाता है।पिंडदान की शुरुआत कब और किसने की, यह बताना उतना ही कठिन है जितना कि भारतीय धर्म-संस्कृति के उद्भव की कोई तिथि निश्चित करना। परंतु स्थानीय पंडों का कहना है कि सर्व प्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने पिंडदान किया था। महाभारत के ‘वन पर्व’ में भीष्म पितामह और पांडवों की गया-यात्रा का उल्लेख मिलता है। श्रीराम ने महाराजा दशरथ का पिण्ड दान यहीं (गया) में किया । गया के पंडों के पास साक्ष्यों से स्पष्ट है कि मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर कुमारिल भट्ट, चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस व चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है। गया में फल्गू नदी प्रायः सूखी रहती है। इस संदर्भ में एक कथा प्रचलित है। प्रदेश के मिडिया विश्लेषक और पत्रकार पंकज सीबी मिश्रा ने बताया कि वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीताजी के साथ अपने पिता दशरथ का श्राद्ध करने गयाधाम पहुंचे। श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री लाने ज़ब वे चले गये तब तक राजा दशरथ की आत्मा ने सीता माता से पिंड की मांग कर दी। फल्गू नदी के तट पर अकेली बैठी सीताजी अत्यंत असमंजस में पड़ गई। माता सीताजी ने सात साक्ष्य, ब्राह्मण, फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष तुलसी कौओ और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया। जब भगवान श्री राम आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान को क्रोध आया और विश्वास नहीं हुआ। माता ने तब जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने बुलाया। ब्राह्मण, फल्गु नदी, कौआ, तुलसी, गाय और केतकी फूल ने भगवान का क्रोधित रूप देखकर झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली। इससे क्रोधित होकर सीता माता ने ब्राह्मणों को आभाव का, फल्गू नदी को सूखे रहने का, गाय को पूजनीय होने के बाद भी कचड़ा खाने का, कौओ को आपस में लड़ने का श्राप दिया, केतकी के फूल को पितृ पूजन मे निषेध का और तुलसी को गया क्षेत्र में सुख जाने का श्राप दिया। माता ने वटवृक्ष पर प्रसन्न होकर उसे सदा दूसरों को छाया प्रदान करने व लंबी आयु का वरदान दिया। तब से ही फल्गू नदी हमेशा सूखी रहती हैं, गया क्षेत्र में तुलसी के पेड़ नहीं लगते, जबकि वटवृक्ष अभी भी तीर्थयात्रियों को छाया प्रदान करता है। आज भी फल्गू तट पर स्थित सीता कुंड में बालू का पिंड दान करने की क्रिया (परंपरा) संपन्न होती है। इस प्रकार यह माह हिन्दू और सनातन परम्परा में महत्वपूर्ण माह माना जाता है।