बिचौलियों के दम पर चलता है भदोही एआरटीओ कार्यालय — बिना टेस्ट दिए लाइसेंस की गारंटी
धनंजय राय ब्यूरो/पूर्वांचल लाइफ
भदोही। जिले के एआरटीओ कार्यालय में व्यवस्था नहीं, बल्कि बिचौलियों की मनमानी चल रही है। ड्राइविंग लाइसेंस (डीएल) बनवाने से लेकर फिटनेस सर्टिफिकेट तक — हर काम की अपनी रेट लिस्ट तय है। परिसर में घुसते ही 22 से 25 बिचौलिए सक्रिय दिखते हैं, जो भोले-भाले लोगों को फंसाकर सरकारी शुल्क से तीन से चार गुना तक रकम वसूल रहे हैं।
स्टिंग ऑपरेशन में यह खुलासा हुआ है कि डीएल बनाने के लिए सरकारी शुल्क मात्र ₹1000 है (₹350 लर्निंग व ₹750 डीएल शुल्क)। लेकिन बिचौलियों का रेट ₹3500 से ₹4000 तक पहुंच गया है। झांसे में फंसे लोगों को यह भरोसा दिलाया जाता है कि “कोई टेस्ट देने की जरूरत नहीं, डीएल घर बैठे बन जाएगा।”
ऐसे चलता है बिचौलियों का खेल
स्टिंग में यह भी सामने आया कि बिचौलिए न केवल नए आवेदकों को घेरते हैं, बल्कि उन्हें फर्जी प्रक्रिया से डीएल बनवाने का लालच भी देते हैं।
“आधार कार्ड और डिजिटल सिग्नेचर भेज दो, ओटीपी आएगा तो बता देना, एक महीने में लाइसेंस मिल जाएगा।”
यही बिचौलियों का फॉर्मूला है। वे खुद ही पूरी ऑनलाइन प्रक्रिया कर देते हैं और आवेदक से 3–4 हजार रुपये तक वसूल लेते हैं।
फिटनेस सर्टिफिकेट के नाम पर भी मोटी रकम ली जाती है —
बस/ट्रक फिटनेस शुल्क सरकारी तौर पर ₹800–₹1000
छोटे वाहन के लिए ₹600
लेकिन बिचौलियों की जेब में चला जाता है ₹1000–₹1400 अतिरिक्त।
जौनपुर तक फैला नेटवर्क
सूत्रों के मुताबिक, भदोही एआरटीओ दफ्तर के बिचौलिए केवल स्थानीय स्तर तक सीमित नहीं हैं। उनका नेटवर्क जौनपुर तक फैला है। दोनों जिलों के कुछ एजेंट एक-दूसरे से जुड़े हैं और दलाली के इस रैकेट को मिलकर चला रहे हैं।
हर दिन 15–20 डीएल, आधे बिना टेस्ट के
औसतन रोज़ाना 15 से 20 डीएल बनाए जाते हैं, जिनमें से करीब आधे ऐसे होते हैं जिनके आवेदकों ने टेस्ट तक नहीं दिया होता। यह खुलासा अमर उजाला की पड़ताल में हुआ है।
बिचौलियों से बचें, सीधे अधिकारी से संपर्क करें — एआरटीओ
इस पूरे प्रकरण पर जब एआरटीओ भदोही राम सिंह से सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा—
“कोई भी व्यक्ति बिचौलियों के चक्कर में न पड़े। कार्यालय में बिचौलियों की एंट्री बंद है। यदि ऐसा कोई मामला है तो जांच कराई जाएगी और दोषियों के खिलाफ केस दर्ज होगा।”
निष्कर्ष
भदोही एआरटीओ कार्यालय का यह स्टिंग एक बार फिर साबित करता है कि सरकारी दफ्तरों में पारदर्शिता अब भी एक कठिन परीक्षा बनी हुई है। सवाल यह है कि जब ऑनलाइन व्यवस्था मौजूद है, तो फिर बिचौलियों की पकड़ इतनी मजबूत क्यों है?