कितना दूँ मैं विस्तार…..!

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पूर्वांचल लाइफ/अश्वनी तिवारी

कदम-कदम पर ताने मिलते,
होता आया हरपल दुत्कार….
गाँव-देश को क्या मैं कहता
जब समझ ना पाया….!
मुझको मेरा ही परिवार….
गलत-सही का भेद मैं परखा,
करना चाहा था…इसका परिहार…
इस कारण ही प्यारे मित्रों….!
अनायास ही….सिस्टम से…
होना पड़ा मुझको दो-चार…
प्रयत्न भगीरथ सा मैं करता,
पर हो जाता था लाचार…
विजय कहीं मिली ना मुझको,
मन मजबूत कर के प्यारे,
किया हार को स्वीकार….
सच मानो…बस इस कारण ही मित्रों
प्रकट किसी को कर न सका,
मैं दिल से कभी भी आभार…
किस्मत का लेखा भी ….!
ऐसा लिखा परवरदिगार…कि…
गुरु भी कोई मिला न मुझको
जो करवा देता मुझसे….!
यह युद्ध विचित्र…आसानी से पार…
शायद मेरा दुर्भाग्य प्रबल था
हारा था मैं हर बार…पर….
सच यह भी है मित्रों…..!
चकाचौंध की दुनिया से,
ना किया कभी मैंने कोई प्यार…
कैसे बताऊँ और किसे बताऊँ…?
दिन-ब-दिन घटता ही गया…
अपनों का भी प्यार-दुलार….
जबकि…खूब मजे से सब जाने….
धमा-चौकड़ी की मुझ में…..!
अभी भी बाकी थी शक्ति अपार….
बारम्बार मिली जो हार,
सपने कोई….ना हुए साकार…
मन में पीड़ा का मित्रों….!
खुद ही बढ़ता गया आकार….
पीड़ा के बाबत मैं क्या ही कहूँ….
दुनिया जाने है यह सरकार….
पीड़ा तब और बड़ी हो जाती है,
जब अपनों से ही मिलती हार…
संग इसी के सब ये जाने…
जीत-हार तो रीति है जग की…!
अद्भुत है यह व्यापार…
सभी जानते हैं…यह सच भी कि…
हँसकर या फिर रोकर….!
करना ही है इसको स्वीकार….पर…
आप बताओ मित्रों….!
दुखती रग पर ही जब,
हाथ धरे हरदम हर कोई…
बिगड़े घावों पर…नमक छिड़कने को
बेताब दिखे हर कोई…फिर…
सहनशक्ति की सीमा को…!
कितना दूँ मैं विस्तार….
सहनशक्ति की सीमा को….!
कितना दूँ मैं विस्तार….

रचनाकार….
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त,लखनऊ

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