मित्रों….गाँव-देश,घर-परिवार…
या फिर…समाज में….!
दिख रहा है साफ-साफ….
एक अजीब सा परिवर्तन
कोई नहीं दिखता यहाँ,
गलती-सही पर टोकते हुए….
यह कहने वाला कि ….!
चलो बहुत हुआ….
अब बस करो ….अब बस….!
कभी नहीँ दिखते….कहीं नहीं दिखते….
गलतियों पर डाँटने वाले को भी,
कभी अनायास ही हँसने वाले को भी
कभी घर के मलिकार को….या फिर
गाँव-देश के लम्बरदार-ज़मीदार को
हक से डाँटकर यह कहने वाले कि
चलो बहुत हुआ….
अब बस करो….अब बस….!
सच मानिए मित्रों…..
बस इन्हीं चन्दअल्फ़ाज़ों से,
भटके और कल्पनाजीवी लोगों को….
देते थे ये लोग…सही दशा-दिशा…
इसी से लगाते थे….ऐसे लोगों की….!
बुरी आदतों पर लगाम…..
नहीं होने देते थे….किसी भी ढंग से..
अपनी नई पीढ़ी को धड़ाम…..
मित्रों बड़े-बुजुर्गों के अंदर….!
होती थी यह फौलादी ताकत….
बे-मुरौअत गर्म होता था,
इन बड़े-बुजुर्गों का रक्त…..
अपने आदेशों-निर्देशों को,
आसानी से कर देते थे व्यक्त….
पर….अफसोस प्यारे…..!
गाँव-देश समाज को तो छोड़िए…
आज ….खुद अपने ही घर में….!
बड़े-बुजुर्ग हो गए हैं परित्यक्त….
अपनों के ही आगे,
बुरा हुआ चला है इनका वक्त….
फिर-आप ही बताओ मित्रों…..!
कैसे टोंक सकेंगे ये विचारे…
किसी को….कहीं भी वक्त-बेवक्त…
प्यार-दुलार से यह कहते हुए कि….!
चलो बहुत हुआ….
अब बस करो….अब बस….!
सच मानो मित्रों….
स्वस्थ समाज को….धीरे-धीरे….
गेहूँ के घुन की तरह चाल रहा है,
इस प्रकार का परिवर्तन…..
इसके कारण ही…गाँव-देश से…
खतम सा हो गया है…..!
आज गीत-भजन-कीर्तन…और…
घर-परिवार में रोज ही….!
खनखनाते दिख रहे हैं,
घर के थाली-लोटा-बर्तन….
अब और कहूँ क्या मैं मित्रों….
ख़ुद ही गौर करो…. करो मंथन….
शायद समय आ गया है कि….
परिवर्तन को ही कहा जाय….
चलो बहुत हुआ…..
अब बस करो…. अब बस….!
अब बस करो…. अब बस….!
रचनाकार…..
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ