ज़रूरी कहाँ है
हृदय की
हर बात कह देना।
आवश्यक है कुछ बातों को
स्थायी भाव से,
मन में रख लेना।
जब तक न मिले कोई
सुयोग्य,सहृदय और सुपात्र
उन भावों को बिन कहे
सुनने वाला ।
क्यों करना है अपने
अनमोल भावों को व्यर्थ,
जब न हो कोई समर्थ
और समझने वाला ।
हर अभिव्यक्ति का
है एक अर्थपूर्ण मंतव्य,
हर शब्द का होता है,
एक निश्चित गंतव्य ।
यदि न मिले उन शब्दों को
सक्षम ग्राही ,
तो विचरते रहते हैं
शब्द, ब्रह्मांड में,
सक्षम, समर्थ और
सुपात्र की खोज में ।
जो समझ ले उनका
सही मंतव्य,
जो दे सके उन
भावों को
एक निश्चित गंतव्य।
और साथ ही दे सके
शब्दों को
विचरण से मुक्ति भी,
और मंतव्य के
अभिव्यक्ति की शांति भी।
—कवि सन्तोष कुमार झा