“इतना उलझा है मन”

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इतना उलझा है मन, सारी ख्वाहिशें हो गई दफन
इस निर्मोही समाज में, क्यों ले लिया जनम

जहां क्रूरता की हो गई है हद पार,
एक नारी को किया जा रहा परेशान बार-बार
ये समाज क्यों छीन रहा स्त्रियों के जीने का अधिकार
किसी के न रहने पर क्यों मजबूर किया जा रहा कि
वह हो जाये खत्म

इतना उलझा है मन ,सारी ख्वाहिशें हो गई दफन

उसकी लज्जा को किया जा रहा है तार-तार
होता है उनका रोज तिरस्कार
उनके चरित्र पर हो रहा लगातार वार
क्यों सब शकुनि की तरह चल रहे चाल
एक स्त्री के स्वाभिमान पर दुर्योधन कर रहा वार
इतना उलझा है मन, सारी ख्वाहिशें हो गई दफन

बिना छुए भी किया जा रहा शब्दों से उसका चीर हरण,
समाज क्यों चुप रहता है ऐसे अपराधों पर,
क्या उनके घर पर है बहन बेटियों का अकाल,
जो नहीं समझता परनारी की
पीड़ा को,
क्या इस समाज ने नहीं महसूस किया कभी अपनी माॅं की पीड़ा को
अगर मिले अगला जनम, तो प्रभु न दे स्त्री तन में जनम,
इतना उलझा है मन, सारी ख्वाहिश से हो गई दफन

–कवयित्री पूर्णिमा सिंह, प्रतापगढ़

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