जौनपुर ! कहते है जौनपुरिया बोली और बनारसी गाली के कौनो तोड़ नाही। पर जिस युग में तुलसी शब्द सुन कर बड़े बड़े कवियों को ‘तुलसी पान मसाला’ याद आता हो, उस युग में एक बड़े धार्मिक आयोजन के बैनर पर रजनीगंधा गुटका का विज्ञापन देखना बुरा क्यों है? प्रायोजक चाहता है ‘सईंया’ ‘पियवा’ से शुरू हुई साहित्यिक यात्रा ‘मोरे साजन, मोरे बालम’ ‘जान मारे जान हो महरून कलर सड़िया’ से होते हुए ‘रजऊ’ ‘करेजऊ’ तक पहुँचे। यदि रजनीगंधा साहित्य की इस महायात्रा में सहयोग करना चाहता है तो आपके गुर्दे क्यों लाल हो रहे हैं? जनपद के पत्रकार और साहित्य समालोचक पंकज सीबी मिश्रा कहते है कि वर्तमान युग हिन्दी साहित्य का रजनीगंधा युग है! लोक साहित्य के इस अथाह मंच पर कल्पना पटवारी से लेकर उजाला यादव और नेहा सिंह राठौर से लेकर शिल्पी राज तक का राज देखने के बाद मुझमें वह सहजता आ गयी है कि अब मैं श्रीमान तेजप्रताप यादव और मनोज तिवारी भईया को जुगलबंदी के लिए आमंत्रित कर सकता हूँ। परम् मित्र खेसारी लाल को भारत के प्रधानमंत्री पद पर देख सकता हूँ। यह हिंदी साहित्य का रजनीगंधा युग है, अब हर व्यक्ति साहित्य थूक सकता है। कभी लिखा था प्रेमचंद ने कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है और वह महात्मा गांधी का युग था पर यह कांग्रेस में राहुल गांधी का युग है और आज साहित्य पुरस्कार फेंकने वाला युग बन चुका है। एक फ़ोटो में देखिए कि साहित्य के एक उस्ताद पुरुषोत्तम अग्रवाल जिनको साहित्य अकादमी मिलनी है, को कैसे तो राजनीति ने अपने पंजे में दबा रखा है। आगे चलने वाली मशाल जाने कहां लुप्त हो गई है। राहुल गांधी ने कंधे पर हाथ ऐसे रखा है मानो पुरुषोत्तम अग्रवाल कोई लौंडे हों और कल ही टिकट लेकर उपचुनाव में कुंद पड़ेंगे। कभी साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी गैंग के अगुआ रहे पुरुषोत्तम अग्रवाल को अभी-अभी साहित्य अकादमी मिली है। सोचिए कि यह सब तब है जब पुरुषोत्तम अग्रवाल अपने को कबीर का बड़ा भारी व्याख्याकार मानते हैं। सारी ज़िंदगी कबीर-कबीर करते रहे और दुबके भी हैं तो कहां जा कर। कबीर तो ऐसे न थे। कबीर का नाम लेने में क्या अब सकुचाएंगे कभी यह पुरुषोत्तम अग्रवाल ? लाज आएगी ? सोचिए कि कबीर को भी कैसे-कैसे व्याख्यायित किया होगा। लेखकीय अस्मिता की राजनीति में यह कौन सी सरहद है भला ! दिलचस्प यह कि बात-बेबात तिल का ताड़ बनाने वाला समाज भी केवल हम जैसे पत्रकारों की कमियां ढूढ़ता है। आज वो तमाम रजनीगंधा खाने वाले जाने किस चूहे के बिल में घुस गए है जो कभी कहते थे की मै बस अपनी फोटू चेपते रहता हूं। रविश अंजुम और ध्रुव राठी जैसा एक पूरा धड़ा सिरे से ख़ामोश है। ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो जबकि यह बहुत शर्मनाक है। इस युग में श्रेष्ठ साहित्यकार वही है जो चीनी को जमा कर के फिर से गन्ना बना दे जैसे अपने शम्भू शिखर साहब। अच्छा लेखक वह जो पादने को पुरुषवादी अत्याचार घोषित कर दे जैसे अपने पंजाबी फौजदार साहब। मंच वह नहीं जहां ‘वर दे वीणावादिनी वर दे’ पढ़ा जाय, मंच वह है जहाँ ‘ऊ अंटा आव वां’ और ‘कट्टो गिलहरी’ पढ़ा जाए। मंचो पर पैसे लेकर किसी सड़कछाप को ब्रांडेड कवि अथवा कवयित्री बता कर लाया गया हो। मंच पर आसीन कोई देवी अपनी नाक और मुँह को पैंतालीस डिग्री तक मोड़ कर देखें और कविसम्मलेन के बाद घर जाकर दूसरी मंचासीन देवी को राणी, भतारकाटी, पूतखौकी आदि प्रगतिशील विशेषणों से नवाजे। साहित्य आजतक के मंच पर गाये गए साहित्यिक आइटम सॉन्ग सुन कर मैं खासा गदगद हूँ। बहुत हुई इश्क के सात आयामों पर चर्चा, अब दुनिया गुलजार से जानना चाहती है कि जिगर से बीड़ी कैसे जलाते हैं। जनता ‘जरा जरा किस मी किस मी किस मी’ गाने में हुए यमक अलंकार के दिलखरोचूँ प्रयोग के लिए कवि को अकादमी और ज्ञानपीठ जैसे सम्मान दिलवाना चाहते है। मेरी कलम इसके लिए राह बना रहा है, यह साहित्य के लिए सुखद संकेत है। मुझे अब भरोसा हो चला है कि अब साहित्यकार पाठकों की कमी का रोना नहीं रोयेंगे। मेरे एक विद्वान मित्र ने कहा, “ऐसे आयोजन बुरे नहीं, बस इसमें लोकमनोरंजन का भाव अधिक है।” मैं उनसे पूर्ण सहमत हूँ। मैं तो यह चाहता हूँ कि अगली बार काव्य मंचों पर चीयरलीडर्स की भी व्यवस्था हो जो किसी वक्ता के हिट डायलॉग पर बजती तालियों के साथ मनोहर डांस प्रस्तुत कर लोकमनोरंजन करें। महत्वपूर्ण यह है कि जनता को किसी भी तरह से जोड़ कर रखा जाय, समकालीन साहित्य का क्या, उसका स्वरूप तो बदलता रहता है।
व्यंग्य: हिंदी साहित्य का रजनीगंधा युग, कहो जुबां केसरी
