आग उगलता आसमान

Share

प्राची से अलसाये रवि ने ,ज्यों ही खींची अरूणिमा।
वेग से होकर प्रचण्ड, लगा दहकने नभ नीलिमा।

तप्त अकुलाई धरा, लख भानू -रूप की ये रौद्रता।
झुलस रहा भुवन सारा ,देख गर्मी की उन्मादिता।

जड़-चेतन,जीव-जंतु सकल, व्यथित भटकते भर उद्विग्नता।
छाँव शीतल न बची ,तरू- कानन में भी खिन्नता।

नद-नदी ,कुएँ , ताल-पोखर ,जल- राशि की बनी रिक्तता।
तृषित विहग-वृन्द उड़ते नभ में,न पाते कहीं भी जल उपलब्धता।

उठती लू ,चलता बवन्डर ,थम गई जग गतिशीलता।
मार गर्मी की इतनी भीषण,आठों पहर मतिहीनता।

आग उगलता आसमान बस,अग्निशिखा सम विकरालता।
हतप्रभ बने सब पृथ्वीवासी, तन में बसे ज्यों निष्प्राणता। (द्वारा -कविता प्रकाशन समूह )

   - मंजू शकुन  खरे, दतिया एमपी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!