मनोज कुमार शर्मा की सत्य कहानी पर लिखा यह फ़िल्म हालिया चर्चित फ़िल्म है। मेकर्स ने फ़िल्म के साथ बेहतरीन जस्टिस किया है। हर भावनाओं को बेहतरीन रूप से दृश्य दिया गया है। विक्रांत मेसी ने कमाल का अभिनय किया है। बेहतरीन अभिनय और कहानी में जबरदस्त फिट हुए। कहानी यूपीएससी एस्पिरेन्ट के लिए डोपामिन बूस्टर है, कुछ पल के लिए मोटिवेशन है, आँखे कई बार भाव में भीग जाएंगी, कई बार तो ऐसा लगा ये जिंदगी सबकी है।इसमें गाँव की गरीबी, घर की तंगी, तकलीफें, लगन, मेहनत, दृढ़ता, सकारात्मकता, प्रेम, भवना, साथ, सहयोग, हार, सफ़लता सब कुछ है। यूँ कहें इस वर्ष का शुरुआत इस बेहतरीन सिनेमा से हुआ। दो चीज इस मूवी से सीखी जा सकती है कि डायरी लेखन और टाइमर लगाकर अपने पढ़ाई को ट्रैक करना। ऐसा लगा कुछ पल को, की ये हिंदी मीडियम लड़को के लिए प्रचार है। लेकिन क्या फर्क पड़ता है। फ़िल्म देखने के बाद दिमाग़ में उठने वाला प्रश्न यह कि क्या मनोज आईपीएस नहीं बनता तो श्रदा मनोज से शादी करती?और अमीर आरक्षण पर वार करता यह भी कि वह परिवार इतना कैसे गरीब हो सकता जिसकी दो पीढ़ी सरकारी नौकरी में रही हो ?
1963 से 1970 तक हम जिस गाँव में रहते थे, वह कभी फ़िल्म में आएगा ऐसा सपने में भी नहीं सोचा। आईपीएस अफ़सर मनोज कुमार शर्मा जो जौरा गांव के निवासी है की कहानी भी किसी सपने से कम नहीं। वे जब स्कूल जाना शुरू किए तो गाँव में बिजली तक नहीं थी। मनोरंजन का प्रमुख साधन था विडिओ केसेट। जौरा तहसील के बिलगाँव में रहने वाला लड़का, मनोज शर्मा 12 वीं में एकबार फेल होकर भी अपनी ज़िद से स्नातक और फिर कोशिशों के बाद यूपीएसी परीक्षा में सफल होकर 121 वीं रेंक लाता है। जौरा- मुरैना- ग्वालियर और चंबल मैया “नदी” का संदर्भ, मन को ख़ुश कर देता है। फ़िल्म में गाँव की भाषा भी जौरा- मुरैना क्षेत्र की है, मौड़ा -मौड़ी वग़ैरा सुन बचपन की याद आ गई। पात्रों के स्वभाव की गरमी भी उन दिनों की याद दिलाती है, जब बात-बात में बंदूक़ें तानना आम था। “चंबल का पानी” उसी को कहते हैं। फ़िल्म के अंत में जब चौथी और आख़िरी कोशिश में मनोज यूपीएससी परीक्षा और इंटरव्यू में सफल होता है तो आँखें ख़ुशी से नम हो जाती हैं। मनोज की भूमिका प्रतिभाशाली कलाकार विक्रांत मेसी ने निभाई है। उनके मित्र पांडे के रूप अनन्त जोशी भी आपको अपना सा कर जाते हैं।
मेधा शंकर ने मनोज की प्रेरणा और जीवन साथी श्रद्धा जोशी की भूमिका निभाई है। निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा, निश्चित रूप से प्रशंसा के पात्र हैं जिन्होंने इस कथा को ईमानदारी से चित्रित किया है। यह एक प्रेरणादायी फ़िल्म है, इसलिए सोचा अपने पाठकों के साथ साझा करूँ। कुल मिलाकर मनोज और गौरी भैया व पांडे जी का किरदार सबसे ताकतवर रहा है। इन दोनों ने सिनेमा को बांध कर रखा। प्रेम वाला भाग मुझे उतना प्रभावित नहीं किया। हालांकि इस सिनेमा की हिरोइन मेधा शंकर ने श्रद्धा जोशी की किरदार को बखूबी निभाया है। डॉक्टर विकास दिव्यकृति को फ़िल्म में देखना सहज था। डायरेक्टर ने कमाल का काम किया है। इस फ़िल्म ने हँसाया, रुलाया और वर्तमान से अतीत तक का सैर कराया। इस फ़िल्म के सभी टीम को बधाई इन्हे पांच स्टार रेटिंग से साढ़े तीन स्टार की रेटिंग। मैं सभी से अनुरोध करता हूँ ये फ़िल्म जो नहीं देखें हैं अवश्य देखे – “पंकज कुमार मिश्रा” रिव्यूअर एवं पत्रकार जौनपुर यूपी!