“परदेस”

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जाना नहीं चाहिए चिड़ियों को
छोड़कर अपने घोंसले,
दूर के मनमोहक जंगलों में ।

छोड़ देती हैं चिड़ियाँ अपने घोंसले,
तलाश में बेहतर फल फूल
और बेहतर आशियाने के।

छूट जाता है
उनका घर, उनके रिश्ते ,
उनकी ज़मीन, उनका आसमान ।
छूट जाती है सदा के लिए
उनकी अपनी पहचान।

दूर के जंगल सुहावने होते हों शायद
होती हो हर चीज़ वहाँ करीने से ।
पेड़ होंगे शायद वहाँ फलदार अधिक,
और फल होते होंगे अधिक रसीले से।
फूल होंगे कहीं ख़ुशबूदार ज़्यादा,
और शायद होंगे अधिक रंगीले से।

लेकिन मिलेगी कहाँ से अपने मिट्टी की सौंधी सुगन्ध ,
और कहाँ से पाएँगे वे अपनी हवा का स्पंदन ।
कहाँ मिलेगा अपनों का अपनापन
कौन करेगा दूर उनका एकाकीपन।

आएँगें कौन काम वहाँ, वक्त ज़रूरत,
कब काम आएँगे वे अपनों के।
ऐसा भी क्या जाना परदेस,
जब लौट न पाएं ख़ुद अपनी मर्ज़ी से।

जाना नहीं चाहिए चिड़ियों को
दूर के जंगलों में उड़कर,
जाना नहीं चाहिए कभी उनको
अपने घोंसलों को छोड़कर।

कवि सन्तोष कुमार झा
सीएमडी कोंकण रेलवे, मुंबई

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