वाराणसी। 24 सितम्बर 2024 को आचार्य रामचंद्र शुक्ल सभागार, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के तत्वावधान में एवं वाणी प्रकाशन की निदेशक अदिति माहेश्वरी गोयल के नेतृत्व में प्रख्यात ग़ज़लकार और आलोचक प्रो. वशिष्ठ अनूप की आलोचनात्मक पुस्तक ‘हिन्दी ग़ज़ल का परिप्रेक्ष्य’ का लोकार्पण करते हुए इस पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। विश्विद्यालय के परंपरानुसार महामना मदनमोहन मालवीय जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्ज्वलन के पश्चात् आकांक्षा मिश्रा, स्मिता पांडेय और दिव्या शुक्ला ने डॉ. शांति स्वरूप भटनागर द्वारा रचित कुलगीत ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी’ की प्रस्तुति मधुर स्वर में की।
स्वागत वक्तव्य देते हुए वाणी प्रकाशन की निदेशक अदिति माहेश्वरी गोयल कहती हैं कि एक नई विधा, एक नई ख्याल की आलोचनात्मक पुस्तक ‘हिंदी ग़ज़ल के नए परिप्रेक्ष्य’ पुस्तक परिचर्चा में आप सभी का स्वागत करती हूं। उन्होंने बताया कि 80 के दशक में वाणी प्रकाशन ग्रुप में ग़ज़लो का आगाज़ हुआ था। जनसत्ता में छपने वाले ग़ज़ल मेरे पिता जी की निगाह में रहते थे। ‘हिंदी ग़ज़ल के परिप्रेक्ष्य’ पुस्तक का कवर पृष्ठ राजस्थानी शैली में है। अनूप जी की गज़लें छंदात्मक लय से अनुस्यूत है। जब आप उनकी ग़ज़लों से गुजरेंगे आपको प्रतीत होगा कि आप एक साथ कई व्यक्तित्व से बात कर रहे हैं। एक इंसान, एक भाषा वैज्ञानिक, एक रसिक से बात कर रहे हैं। इनकी गज़लें छंद, ताल एवं लय को साथ लेकर चलते हैं।
ग़ज़लकार प्रो. वशिष्ठ अनूप ने बताया कि ग़ज़ल को पायलों की रुनझुन की दुनियां से निकालकर एक अलग दुनिया में ला खड़ा किया। “मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं। इन्होंने ग़ज़ल को नई छाया प्रदान की। “मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं, हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।” पर्यावरणीय संकट ग़ज़ल का विषय बना। “अब हमें भी विष पिलाकर आजमाएगी नदी।” इन्होंने हिंदी ग़ज़ल की परंपरा को अमीर खुसरों, भारतेंदु से लेकर दुष्यंत कुमार और समकालीन ग़ज़ल के इतिहास भी को स्पष्ट किया। ओम प्रकाश यती की एक ग़ज़ल के साथ इन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया; कुछ नमक से भरी थैलिया खोलिए
फिर मेरे घाव की पट्टियां खोलिए
भेज सकता है काग़ज़ के बम कोई
ऐसे झटके से मत चिट्ठियां खोलिए।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे अंग्रेजी विभाग, बीएचयू के प्रो. कृष्ण मोहन पाण्डेय ने कहा कि ग़ज़ल और उदासी का बड़ा गहरा रिश्ता है। इन्होंने आगा शहीद का ग़ज़ल संग्रह ‘call me smile to Night’ का भी जिक्र किया। इन्होंने बताया जब मैं इस पुस्तक को पढ़ रहा था शुरू में यह मुझे ‘Post independence poetry’ जैसा लगा था। ‘हिंदी गद्य के नए परिप्रेक्ष्य’ पुस्तक से गद्य की आलोचना को एक प्रस्थान बिंदु मिला है। वशिष्ठ अनूप ग़ज़लफरोश हैं जिस अर्थों में भावानी प्रसाद मिश्र ‘गीतफरोश’ थे। इस पुस्तक में गज़लकारों का मूल्यांकन सहृदय भाव से किया गया है।
‘ज़िंदगी एक मिसरा है, चाहे तो ग़ज़ल बन जाए।’
कटु यथार्थ से दो-दो हाथ करती ग़ज़ल हार नहीं मानती। इन्होंने अदम गोंडवी के ग़ज़लों में गंवई गंध गुमान की बात कही।
‘ग़ज़ल को ले चलों अब गांव के दिलकश नज़ारों में।’
विशिष्ट वक्तागणों में प्रो. प्रभाकर सिंह, प्रो. नीरज खरे, प्रो. राकेश कुमार द्विवेदी, डॉ. प्रभात कुमार मिश्र शामिल थे।
प्रो प्रभाकर सिंह ने कहा कि गज़लकार वशिष्ठ अनूप ग़ज़ल को जीते हैं। यहां गज़ल को ‘गज़ल’ नहीं ग़ज़ल कहा है जो हिंदी की रवायत को स्पष्ट करती है। प्रगतिशील हिंदी कविता के प्राणतत्व सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हैं। राजेश जोशी हिंदी प्रगतिशील कविता के पांच इंद्रियों के रूप में शमशेर, त्रिलोचन,मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को मानते हैं।
त्रिलोचन
“ बिस्तर न चारपाई है
जिंदगी हमने खूब पाई है
कल रात जिसने सिर काटा
वह मेरा ही भाई है।”
त्रिलोचन और केदारनाथ सिंह के यहां कविता और ग़ज़ल में द्वंद्व देखने को मिलता है। जनवादी चेतना की आंदोलनधर्मिता में गेयता का बहुत महत्व है। इस दौर में विकसित नवगीत इसे स्पष्ट करते हैं।
दुष्यंत कुमार की गज़लों में जो पीड़ा की ताप दिखाई देती है कि लोगों ने कविता के ताप के साथ ग़ज़ल को पढ़ा।
“मत कहो आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।”
प्रो नीरज खरे ने बताया कि ग़ज़ल अरबी का शब्द है जिसका अर्थ है सूत काटना। गजल जीवन की बिखरी रूई कोकाटकर महीन कर देती है। उर्दू में गज़ल का मतलब प्रेमिका से बातचीत करना होता है। ग़ज़ल की पृष्ठभूमि प्रेम और सौन्दर्य से ही निर्मित हुई थी। इस पुस्तक में ‘ हिंदी ग़ज़ल का परिप्रेक्ष्य नामक लेख’ इस पुस्तक की रीढ़ है।
प्रो. राकेश कुमार द्विवेदी कहते हैं गालिब ने उर्दू कविता के अंतरिक्ष को विशाल बनाया। साहित्य संवेदनाओं के विकास का इतिवृत्त होता है। विदाई को लिखने वाले पहले साहित्यकार हैं अमीर खुसरो। इन संवेदनाओं का इतिवृत्त हमें हिंदी ग़ज़लो में मिलता है। इन्होंने उर्दू साहित्य के तीन केंद्रों के विषय में भी बताया।
डॉ. प्रभात कुमार मिश्र ने बताया कि इस पुस्तक में प्रो. अनिल राय ने टिप्पणी की है, “ग़ज़ल की रचना और आलोचना को हिंदी साहित्य में स्थान दिलाने का एक अघोषित आंदोलन चलाया है, ग़ज़लकार वशिष्ठ अनूप ने।” लाला भगवान दीन दीन ने इस विभाग में ग़ज़ल की परम्परा को प्रारंभ किया था। ग़ज़ल की आलोचना के निकष क्या हैं, यह कविता की आलोचना के निकष पर मूल्यांकित नहीं हो सकता। हिंदी ग़ज़ल का समकालीन परिदृश्य उर्दू बहरो के साथ-साथ संस्कृत की छंद परम्परा से अनुस्यूत होकर आ रहे हैं। गोपालदास नीरज अपने गज़लों को ‘गीतिका’ कहते थे। हिंदी कविता में बढ़ रही गद्यात्मक अराजकता को हिंदी ग़ज़ल ने तोड़ा है। ग़ज़ल ने पठनीयता,संप्रेषणीयता एवं रोचकता को बढ़ाया है। ग़ज़ल का शास्त्र हमारा नहीं है। भारतीय साहित्यक कविता का अपना एक शास्त्र है। यथार्थ और यूटोपिया का संघर्ष किसी कविता को बड़ा बनाता है। गज़लकारों में विषय का वैविध्य इसलिए नहीं आ पा रहा है क्योंकि वहां यथार्थ एवं यूटोपिया का संघर्ष नहीं है।
इस कार्यक्रम के संचालनकर्ता डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने बताया कि परिप्रेक्ष्य शब्द का तात्पर्य,नए विचारों से किसी कृति को उसकी संपूर्णता में कैसे देखा जाता है, यह भाव प्रकट होता है।
धन्यवाद ज्ञापन हिंदी के सहायक आचार्य डॉ. राजकुमार मीणा ने किया। उन्होंने कहा कि हर आलोचक की अपनी आलोचनात्मक दृष्टि होती है वह उस दृष्टि को केंद्र में रखकर कृति का मूल्यांकन करता है,साहित्य का प्रतिमान गढ़ता है। इस पुस्तक ने कई गुमनाम गज़लकारों के नामों को उजागर किया गया है।
पुस्तक विमोचन में प्रो. बलिराज पाण्डेय, प्रो. बाला लखेंद्र, प्रो.कमलेश वर्मा, प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल, प्रो. जयप्रकाश मिश्र, प्रो. शशिकला त्रिपाठी, डॉ. उर्वशी गहलौत, डॉ. हरीश कुमार, डॉ. धीरेंद्र नाथ चौबे, डॉ. लहरी राम मीणा, डॉ. नीलम कुमारी, डॉ. मानसी रस्तोगी, रोशनी उर्फ धीरा, प्रियम मिश्रा, अंकित मिश्र, अश्वनी तिवारी, आर्य पुत्र दीपक, सौरभ तिवारी सहित शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की उपस्थिति बनी हुई थी।
प्रतिवेदन: रोशनी उर्फ धीरा