“शांति पर्व पुस्तक पर केंद्रित परिचर्चा का टेलीग्राम पर हुआ आयोजन”

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@रोशनी उर्फ धीरा

#शांति_पर्व_के _परिसंवाद से कुछ मुख्य बातें जो निकल कर आईं हैं।

आनलाइन टेलीग्राम चैनल “हिन्दी साहित्य 2.0”  में गुरूवार , सायं 6.00 से 8.00 बजे के बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के हिन्दी विभाग में कार्यरत प्रोफेसर आशीष त्रिपाठी की काव्य संग्रह “शांति पर्व” पर केंद्रित परिसंवाद कार्यक्रम आयोजित हुआ।

आशीष त्रिपाठी ने कविता पाठ के पूर्व में भूमिका के अंतर्गत जो बातें रखी, उन बातों का सूत्रात्मक रूप प्रस्तुत है; यदि आपको अपनी बातों, संवेदनाओं, इंद्रिय अनुभूति भावनाओं को लोगों तक पहुंचाना है, तो भाषा की दुनिया में कवि की तरह जाएं।  प्रत्येक कवि अपनी भाषा में अपनी परंपरा में कवि होता है। ‘देखना, सुनना, सूंघना, स्पर्श की पहचान ये सब कविता का मूल काम है’ हम देखते हैं इसलिए कवि हैं, हम सुनते हैं इसलिए कवि हैं, हम सूंघते हैं इसलिए कवि हैं।( जिनकी इंद्रियां सामान्य लोगों के मुकाबले अधिक संवेदनशील होती हैं, कवि हैं।) ‘शांति पर्व’ कविता संग्रह में कुल चार खंड क्रमशः हैं- सच मानों, कलयुग, सिंदूर की डिबिया, समुद्र में आकाश।
चारों खंडों की कविताओं के आस्वाद अलग-अलग तरह के हैं। एक संग्रह में कई घर होते हैं और उन घरों में कई कमरे होते हैं। (शांति पर्व एक संग्रह है, इस संग्रह में कई खंड घर की भांति है और उन घरों में भी कई कमरें हैं।) ‘शांति पर्व’ शीर्षक युद्ध के पश्चात् की शांति को बयां करता है, महाभारत में युद्ध के पश्चात् युधिष्ठिर अपने ही प्रतिपक्षी भीष्म से राजनीति की सीख लेने जाते हैं, आज विपक्ष हमारे शत्रु की तरह है, हम उसे खत्म कर देना चाहते हैं। बांग्लादेश में (1973 के बाद से) सत्ता के एक के बाद एक हत्याएं (शेख मुजीबुर्रहमान) इस बात का प्रमाण हैं कि हम विपक्ष को खत्म कर देना चाहते हैं। महाभारत में ही नहीं रामायण में भी लक्ष्मण रावण के जीवन के अन्तिम क्षण में जीवन की सीख लेने जाते हैं। (काल करें सो आज करें, आज करें सो अब ) कवि ने बताया, मुक्तिबोध कहते थे, “आलोचना मैत्री दर्शन है।” आलोचक को कृति के मित्र की तरह होना चाहिए।

कवि आशीष जी ने उनके होने से शीर्षक कविता पाठ किया –
उनके_होने_से कविता कोरोनाकाल में कक्षा के भीतर बैठे शिक्षक द्वारा आभाषी माध्यम से दी जा रही शिक्षा के दरम्यान सामने पड़े खाली बेंचों को देखकर उमड़ी भावना से ऊपजी कविता है।

“जैसे सब कुछ ठहर गया है,

रूक गई है जीवन की नदी……

ठहर गईं हैं लहरें, धारें जमी-सी हैं….

उनकी आवाज़ में परिंदों-सा मिठास है।

उनके_होने_से_किताबें_हो_जाती_थी_जीवित

वे हैं तो जिंदा हैं उम्मीदें!

इसके बाद इसी संग्रह से तीन और कविताओं का पाठ कवि द्वारा किया गया; ‘मेरी नींद’, ‘प्रार्थना’, ‘जो छूट गया’ कवि ने जिन उपमानों की कल्पना की हैं वो प्रयोगवादियों पछाड़ देते हैं,
“देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच

बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।”

ये ऐसी उपमाएं हैं जिन तक देवता नहीं एक संवेदनशील हृदय जो जनजीवन के यथार्थ से गहरा तालुकात रखता हो, जिसमें प्रकृति अपने प्राकृतिक रूप में अंतर्निहित हो, एक ऐसा कवि हीं इन उपमाओं और प्रतीकों को संजो सकता है, पाठक को भी बार-बार ठहरने को बाध्य करता है। हमने आज तक सुना है ‘मंदिर में प्रार्थना करने जाना है’ लेकिन कवि ने ‘प्रार्थना’ को एक अलग क्रिया से सुसज्जित किया है; “प्रार्थना_में_गाती_है_वह_ईश्वर_की_विरुदावली” या “अकेले_गाती_कोई_पुरानी_प्रार्थना_”

“अभी मेरे नींद का रंग है, गहरा स्लेटी” या “मेरे नींद का रंग कत्थे सा था अभी”

‘शांति पर्व’ कविता संग्रह की कविताओं की समीक्षा करते हुए अहमदाबाद_की निवासिनी _शोध_छात्रा_वंदना_ कहती हैं कि शांति पर्व के तीसरे खंड में स्त्री पक्ष की अभिव्यक्ति हुई है। पटकी_हुई_थाली पंक्ति से हमें किसी पुरुष सत्ता का अभास होता है, या तो पिता ने थाली पटक दी होगी, या भाई या पति। जबकि यहां ऐसा नहीं है। यहां एक स्त्री थाली पटकती है; जो इतने वर्षों से झेलती आई है, सहती आई है। यह थाली तो एक ही बार पटकी गई है लेकिन इसकी आवाज़ कई दिनों तक गूंजती रहेगी। कालिदास कविता का जिक्र करते हुए वंदना बताती हैं कि जहां से आषाढ़_का_एक_दिन_ नाटक समाप्त होता है, वहां से इस कविता का प्रारम्भ होता है।

“मेरी बेटी की आवाज़ सुनकर,

तुम्हारे भीतर का कवि चला गया।” (आपको ज्ञात होगा कि आषाढ़ का एक दिन नाटक में मल्लिका की बच्ची के रोते ही कालिदास वर्तमान की वस्तुस्थिति को समझ जाता है और भाग खड़ा होता है)

केंद्रीय विद्यालय चेन्नई  में कार्यरत #प्रमिला_वर्मा_ ने ‘क्षमा में जुड़े हैं मेरे हाथ’ शीर्षक कविता का पाठ करते हुए कहती हैं कि कवि संसार के उन समस्त पितृसतात्मकता के पोषक पुरुषों द्वारा किए गए अत्याचार, स्त्री-पुरुष के बीच फैलाए गए विषमता के प्राश्चित में ये हाथ जुडें हैं।

लखनऊ विश्वविद्यालय में शोधरत! अभिषेक_सुमन _त्रिपाठी ‘शांति पर्व’ कविता के मर्म तक पहुंचते हुए कहते हैं कि “शांति पर्व संग्रह की कविताएं रंगों की फेहरिस्त में बुनी हुई कविताएं हैं” ‘जीना इस तरह’ कविता Art of living को प्रदर्शित करती हैं। इन सब चीजों के प्रति कवि की आँखें संजीदा है। ‘सच मानो’ शीर्षक कविता में संगीत समाई हुई है। इसमें कवि ने उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को याद किया है। यह कविता प्रेम व बंधुता का प्रिएंबल (प्रस्तवाना) है। इसमें सृष्टि का पूरा दर्शन समाया हुआ है। इस कार्यक्रम के सूत्रधार एवं संचालक पूर्वांचल विश्वविद्यालय के शोधार्थी अश्वनी_तिवारी रहे। जिन्होंने बहुत ही समझदारी और संजीदगी से कार्यक्रम के अंत तक का कार्यभार संभाला। परिसंवाद कार्यक्रम में केरल यूनिवर्सिटी से प्रो० शांति नायर, डाॅ० सिंधु, गोरखपुर विश्वविद्यालय की शोधार्थिनी सोनी, लखनऊ विश्वविद्यालय के शोधार्थी आकाश चौहान, आकाश गुप्त, श्रेया सिंह, अभिषेक सुमन त्रिपाठी, स्वाती सोनभद्र, आराधना मिश्रा, सचिन चौरसिया, सुमन सिंह, सुप्रिया सिंह बैंगलोर, श्रेयशी तिवारी दिल्ली, मानसी चौहान रायबरेली, नेहा झा बिहार, भाग्यश्री जायसवाल छत्तीसगढ़, पूनम सिंह ओडिशा, बीना शुक्ला नागालैण्ड, पंचराज यादव, डाॅ० प्रियंबदा मिश्रा जौनपुर, शिवनारायण असिस्टेंट प्रोफेसर कानपुर, पिंकी सहगल प्रयागराज, माता प्रसाद मुसाफ़िर इत्यादि प्रबुद्ध वक्ता-श्रोता उपस्थित रहे।

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