आओं फिर से दीया जलाए…

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इस बार दीए जलाना!
मगर ख्याल रहे…
मन का कोना-कोना हो प्रकाशित
स्वजन-परिजन सब हो आनंदित
श्रम साधक भी हो आह्लादित
ईर्ष्या, द्वेष एवं स्वार्थ की गठरी जलाना
देह, गेह एवं स्नेह से तम को दूर भगाना
तब जाकर इस बार दीपोत्सव मनाना!
– आर्यपुत्र दीपक
असत्य पर सत्य, आलस्य पर श्रम, ईर्ष्या पर स्नेह और अवनति पर उन्नति के विजय के प्रतीक स्वरूप दीपावली कार्तिक मास के अमावस्या के दिन पूरे आर्यावर्त में अलग-अलग सांस्कृतिक एवं सामाजिक पूजा पद्धति के साथ बड़ी धूम धाम से मनायी जाती है। दीपोत्सव के इस महोत्सव में उन्नति एवं सुख-समृद्धि के लिए प्रथम प्रकृति पुत्र भगवन् गणपति और मां लक्ष्मी की आराधना की जाती है। मिथकों में है कि इस दिन गणपति की पूजा से ऋद्धि-सिद्धि एवं माँ लक्ष्मी के पूजन से घर में स्थाई सुख-समृद्धि का वास होता है। पंच दिवसीय यह पर्व विश्व भर के सनातनियों के लिए सबसे बड़ा त्यौहार है।

धनतेरस से लेकर भाई दूज तक चलने वाला यह पंच दिवसीय त्यौहार अनेकों धार्मिक व सांस्कृतिक संदेश देता है। लेकिन आज विडंबना यह है कि हम ईश्वर की पूजा तो करते हैं, रामागमन के उपलक्ष्य में दीये भी जलाते हैं, ईश्वर से उन्नति की प्रार्थना भी करते हैं लेकिन ईश्वरीय संदेश व इन त्यौहारों के मूल भावना को भूल जाते हैं। मैं समझता हूँ भारत की संस्कृति उत्सवधर्मी चेतना सम्पन्न संस्कृति है। जहाँ प्रत्येक दिन हमलोग किसी न किसी उत्सव-महोत्सव में लगे रहते हैं। भारत जितना मिथकों में है उतना ही वैज्ञानिकता में भी है, जितना आधुनिकता में है उतना ही पुरातनता में भी है। मैं समझता हूँ जिस प्रकार मरीजों के लिए भगवान डॉक्टर होते हैं उसी प्रकार वंचितों, भूखों, पीड़ितों के लिए समाज के समृद्ध, सम्पन्न एवं सशक्त लोग ही मूर्त ईश्वर के समान हैं। अगर प्रत्येक आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति यथासंभव इस दीवाली भूखे लोगों, गरीबों, मजदूरों एवं दिव्यांगों को उपहार भेंट करें और उन्हें दावत दें तो उनका भगवान राम के प्रति ये सच्चा सम्मान होगा। भारत के राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त श्रम की शक्ति को शिनाख़्त करते हुए कहते हैं कि-
जल, रे दीपक, जल तू
जिनके आगे अँधियारा है,
उनके लिए उजल तू
जोता, बोया, लुना जिन्होंने
श्रम कर ओटा, धुना जिन्होंने
बत्ती बँटकर तुझे संजोया,
उनके तप का फल तू
जल, रे दीपक, जल तू

प्रकाशोत्सव का यह महापर्व में कुछ लोग एक सप्ताह पहले से अपने आलीशान अट्टालिका को जगमगा कर रखते हैं वहीं बहुत से ऐसे घर हैं जहाँ एक-दो दीया महज चंद घंटों के लिए ही टिमटिमा पाती है क्योंकि उस घर की लक्ष्मी एक दीयें के तेल से एक पहर का खाना बनाने को सोचती हैं। दीपावली सही मायनों में अपने परिवार के साथ उनलोगों के साथ मनाने का त्यौहार है जिन्हें दिवाली बस देखने और ललचाने के लिए आती है। अभावों से घिरे व्यक्ति के लिए पर्व- त्यौहार किसी मानसिक पीड़ा से कम नहीं होती। इस दिन भी बहुत से सुदामाओं का घर पड़ोस के घर की रोशनी से ही रोशन हो पाता है और पड़ोसी के यहांँ बनती पकवान से ही महक कर रह जाता है। मैं नहीं जानता उस झोपड़पट्टी में या झुग्गी में माँ लक्ष्मी आती हैं या नहीं, अगर आती है तो हर बार क्या देकर जाती हैं? जरा सोचें हमारे घर आयी लक्ष्मी का कुछ अंश उस झोपड़ी में भी चला जाए तो वह झोपडी भी कैसे खिल उठेगा जैसे भगवान राम, सबरी के घर आयें हो! क्या आप भगवान राम का दूत बन सकते हैं? अगर हाँ तो गरीबों के घर में भी भगवान राम का उपहार भेंट कीजिए। भारत की सुदीर्घ, समृद्धि , सांस्कृतिक , समरसतावादी और समभाव सम्पन्न विरासत को याद करते हुए हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि एवं पूर्व यशस्वी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई कहते हैं कि
” आओ फिर से दीया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें
बुझी हुई बाती सुलगाएं।
आओ फिर से दीया जलाएं “
आज हमें यह सोचने की जरूरत है कि हम लक्ष्मी का इंतजार पूरी रात दरवाजा, खिड़की खेलकर सड़क से लेकर घर तक दीयें मोमबत्ती, लाइट्स, रंगाली से सजाकर करते हैं लेकिन हमारे घर की साक्षात् लक्ष्मी(बेटियाँ) रात क्या, दिन में भी सुरक्षित है? आय दिन रेप बलात्कार, हत्या सुनने को मिलता है आज हम सब लक्ष्मी को कौन सा सम्मान दे रहें हैं? आज भी ना जाने कितनी सीता रावण के वश में है, कितनी ही द्रौपदी को दुशासन सरेआम अपमानित कर रहा है, कितनी ही कुन्ती अपनों से अपमानित हो रही है, कितनी ही निर्भया वहशी दरिंदों का शिकार हो दम तोड़ रही है, ना जाने कितनी लाडली दकियानूसी एवं रूढ़िवादी सोच की शिकार है, जिसे उन्मुक्त जीना तो दूर व्यवस्थित होकर पढ़ने लिखने की भी स्वतंत्रता नहीं है, उन्हें कौन मुक्त करायेगा? या फिर कौन मुक्त करेगा? जब तक हम अपने अंदर के या समाज के रावण को, दुशासन को अथवा पशुत्व प्रवृति को नहीं मारेगें या मारने में सफल नहीं होगें तब तक मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सच्ची जीत नहीं होगी और न ही उनके स्वागताभिनंदन करने लायक हम बन पायेगे। घर की बेटी अर्थात लक्ष्मी जिसके बिना सभ्य समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। आज श्रद्धा, साक्षी जैसे सैकड़ों घर की लाडली को जानवरों की तरह नोच-नोच कर मार दिया जाता है। यह लिखते हुए बेहद शर्मिंदगी महसूस हो रही है कि बेटी को लक्ष्मी मानने वाला भारतीय समाज में 100 में से 70 यौन शोषण सगे-संबंधियों द्वारा ही किया जाता है। मातृशक्ति की इसी पीड़ा को बयां करती महाकवि माखनलाल चतुर्वेदी की पंक्ति देखें कि-
लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।
मेरे भारतवासियों इस अमावस्या को हम अपने घर-द्वार, सड़क, मोहल्ले तो दीपों एवं लाइटों से रोशन कर देगे, लेकिन आज भी लाखों परिवारों का ‘राम’ सीमा पर टकटकी लगायें दुश्मन की तरफ देख रहे होगें ताकी हमसब भगवान ‘राम’ के सम्मान में कोई कसर ना रहने दे। आज सीमा पर डटे उस राम को आप कौन सा सम्मान देना चाहेगे। आप उन्हें घर में बैठे कुछ नहीं दे सकते लेकिन उन शहीदों और वीर सपूतों के सम्मान में एक दीया जलाकर उनके हिस्से की मिठाई नजदीकी पुलिसकर्मी या सेना के जवान के परिवार को भेंट कर सकते हैं। यह उनके प्रति और मां भारती की सुरक्षा में दिन-रात लगे सभी वीर सपूतों के प्रति सच्चा सम्मान होगा। दूसरी तरफ आज हमें उसके बारे में भी विचार करना चाहिए, जो आज हमारें खुशियों में शामिल नहीं हैं, समाज की मुख्यधारा के जिम्मेवारी से भाग कर माओवादी या आतंकवादी बन गयें हैं। आज पूरा विश्व आतंक और युद्ध की चपेट में आ गया है हर रोज हजारों आम नागरिक बेमौत मारे जा रहे हैं आज जरूरत है कि पूरा विश्व भारतीय संस्कृति का अनुसरण करे। आज विश्व बंधुत्व एवं वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को अपनाने की ज़रूरत है, तभी हम युद्ध की इस विभीषिका में मानवता को संपोषित कर पायेंगे। आतंकी गतिविधियों में शामिल वे लोग जो अपने ही परिवार और समाज को दुश्मन मान बैठे उन तमाम दिग्भ्रमित पथिक को पुनः समाज के मुख्यधारा में लाना हम सबका ही कर्तव्य है। हमें ऐसे पथ-विमुख साथियों के बारे में भी सोचना होगा तभी भारत समवेत रूप से संपन्न, समृद्ध और सशक्त विश्व गुरु बन पाएगा। इधर मीडिया में देखने को मिली कि छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में सैकड़ों नक्सलियों ने शस्त्र समर्पण कर समाज के मुख्य धारा में शामिल हुआ है। ये कदम बेहद सराहनीय है। वर्तमान समय के इसी मनोभाव को सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन जी की पंक्ति से समझ सकते हैं कि-
स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा।
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।

समकालीन परिदृश्यों एवं परिस्थितियों को देखते हुए हमें यह अवश्य सोचना चाहिए कि सारस्वत ब्राम्हण पुलस्त्य ऋषि का पौत्र और विश्रवा का पुत्र एक परम शिव भक्त महान राजनीतिज्ञ, अत्यन्त बलशाली महापराक्रमी योद्वा, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता मायावी, प्रकान्ड विद्वान एवं महाज्ञानी रावण क्यों मारा गया? मुझे लगता है इसका एक सबसे प्रमुख कारण यह है कि रावण का भाई विभीषण उसके साथ नहीं था जबकी भगवान राम के साथ उनके अनुज लक्ष्मण थे। आज हमारे समाज के राम को रावण से अधिक लक्ष्मण से सतर्क रहना पड़ता है यह भयावह एवं विचारणीय है कि आज हम कहां से कहां आ गये?

हम कौन थे, क्या हो गये
और क्या होंगे अभी
आओ विचारे आज मिलकर
ये समस्याएं सभी – मैथिलीशरण गुप्त

बहरहाल इस प्रकाशोत्सव पर दीपक की रोशनी से सब अंधेरा दूर हो जाए, ईश्वर करें कि आप जो चाहे वो खुशी मंजूर हो जाए! आप सब को दीपोत्सव की आत्मिक शुभेच्छा सह अशेष शुभकामनाएंँ।

आर्यपुत्र दीपक
संपादक ‘मानस’ पत्रिका एवं
संस्थापक ‘मानस’ शिक्षण संस्थान।
मो० – 8789792674

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