त्रिलोकी नाथ राय की रिपोर्ट
गाज़ीपुर।
“कहाँ गये वो दिन जब मिट्टी से लथपथ शरीर, लंगोट कसे पहलवान, और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अखाड़े गूंजा करते थे?”
गाँवों की धरती पर कभी शान से गूंजने वाले ये दृश्य अब नागपंचमी पर नदारद हैं। अब न अखाड़े दिखते हैं, न वो जोश, न वो भीड़ और न वो जज़्बा। जो कभी ग्रामीणांचल की पहचान थे, आज बस यादों में सिमट कर रह गए हैं।
पहले हर गांव में होता था अखाड़ा, हर घर से निकलते थे पहलवान:-
नागपंचमी पर कभी हर गांव में अखाड़ों की धूम हुआ करती थी। लड्डू और लडुई की मिठास, ढोल-नगाड़ों की थाप, और कुश्ती के रोमांच में भीगता बचपन यह त्योहार सिर्फ पूजा-पाठ तक सीमित नहीं था, बल्कि सामाजिक मेल-मिलाप, परंपरा और ऊर्जा का अद्भुत संगम था।
अब सिर्फ यादें ही शेष:——–
बीते दो दशकों में जैसे जैसे शहरी संस्कृति ने गाँवों में कदम बढ़ाए, ग्रामीण जीवन की ये पारंपरिक रेखाएं धुंधली होती चली गईं। अब कुछ गिने-चुने अखाड़े बचे हैं, जहां न कोई प्रशिक्षण है, न पहलवान। बस कुछ बुजुर्गों की आंखों में पुरानी चमक और बच्चों में बीते किस्सों की जिज्ञासा बाकी है।
शेरपुर कलां, खुर्द और शहीद बाग जैसे केंद्र अब वीरान:—-
कभी शेरपुर कलां और खुर्द जैसे गांवों में विशाल दंगल होते थे। शहीद बाग का मैदान कबड्डी, बरगत्ता और कुश्ती से गुलजार रहता था। वहीं कुंडेसर, चंदनी, मूर्तजीपुर, बीरपुर, अवथही, सोनाड़ी, कनुवान, खरडीहा जैसे गांवों में भी छोटे-बड़े अखाड़े जीवंत रहते थे।
बुजुर्गों का आशीर्वाद, युवाओं की चुनौती:——-
इस दिन बुजुर्ग खुद लंगोट पहनकर अखाड़े में उतरते थे, और युवाओं को चुनौती देते। बच्चे पूरे साल तैयारी करते कि अगले साल ‘पटकनी’ जरूर देंगे। यह त्योहार केवल शक्ति प्रदर्शन नहीं था, यह पीढ़ियों के बीच संवाद का जरिया भी था।
अब बस रस्म अदायगी भर…
आज भी कहीं-कहीं नाग देवता को दूध और लावा चढ़ाने की परंपरा निभाई जाती है, लेकिन कुश्ती और दंगल अब रस्म अदायगी तक सीमित हैं। न भीड़, न शोरगुल, न पसीने की वो खुशबू बस कुछ बुजुर्ग और अखाड़े की मिट्टी पर बैठकर पुरानी बातें दोहराते लोग।
इस बार नागपंचमी पर सादगी और स्मृति की छाया रही:——
गाँवों में इस बार नागपंचमी पर लोग पूजा-पाठ और पारंपरिक पकवानों तक ही सीमित रहे। कुछेक अखाड़ों में पुराने पहलवान ज़रूर दिखे, जो बीते समय को आंखों में सहेज कर बतिया रहे थे “वो दिन भी क्या दिन थे…”
निष्कर्ष:———
गाँवों के दंगल अब सिर्फ बुजुर्गों की कहानियों और बच्चों की कल्पनाओं में बचे हैं। नागपंचमी का वह सांस्कृतिक रंग फीका जरूर पड़ा है, लेकिन उम्मीद है कि किसी दिन फिर कोई युवा मिट्टी में लंगोट कसकर अखाड़े की परंपरा को फिर से जीवंत करेगा।