वर्षों से….!
सुनता चला आ रहा हूँ कि…
ले रहा समाज अब अँगड़ाई है…
पर समझ न पाया प्यारे मित्रों,
यह कैसी घड़ी विकास की आई है…
खूब धड़ल्ले से….!
बिक रहे हैं डॉक्टर बाबू,
बिक रही यहाँ दवाई है….
बिक रहे हैं मास्टर बाबू भी…
और बिक रही यहाँ पढ़ाई है….
खेल-खिलाड़ी भी हैं बिकते दिखते
जीत-हार की…कोई नहीं लड़ाई है…
हर कोई है खुद में सिकंदर,
हर कोई उम्दा सा जुआरी है…
तय करना मुश्क़िल है प्यारे…कि…
नाच रहा है बंदर…या फिर…!
नाच रहा खुद ही मदारी है….
आसानी से खबर बिक रही है,
अखबारों की यह सच्चाई है…..
बिकता दिखता लोकतंत्र भी…!
जिनकी जग में होती रही बड़ाई है….
एक अचम्भा और कहूँ मैं….!
बिकते दिखते है साधु-सन्यासी,
और धर्म बिक रहा एग्ज़ाई है…..
हुआ विकास इतना है मित्रों,
कि पंख लगाए महंगाई है…और…
भविष्य सुरक्षित करने को….!
सब कर रहे उल्टा-सीधा कमाई है…
बहुत कठिन है अब तो मित्रों
यह तय कर पाना इस जग में,
कौन किसी का….!
कितना सगा सा भाई है….
क्योंकि नफरत के इस बाजार में
बिकने को तैयार खड़ी…..!
अपनी ही परछाई है…..
और कहूँ क्या मैं मित्रों….
गौर से देखो तो सबकी दुनिया
अब हुई हवा हवाई है….
अनायास ही…औ अकसर ही….!
होती सबकी जग-हँसाई है….
परिवर्तन इतना देख रहे हैं सब ही
कि खुद की बनी मिठाई….!
प्रेम से खा रहा…अब हलवाई है….
सच पूछो तो हर व्यक्ति यहाँ,
अब हो गया व्यवसायी है….
लोभ-लालसा में हर कोई,
अव्वल दर्जे का कसाई है…
रचनाकार….
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ