डॉ श्रीपाल सिंह क्षेम का महाकाव्य “कृष्ण द्वैपायन “भारत की सांस्कृतिक अस्मिता को संजोने की एक वैचारिक साधना है। यही कारण है कि क्षेम जी ने ‘कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास’ जैसे विराट सांस्कृतिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक व वैज्ञानिक चेतना के अग्रदूत को अपने वैचारिक महाकाव्य की विषय वस्तु बनाया। वेदव्यास ने अपने पीछे -पीछे संस्कृति की जिस गंगा को बहाया था, उसकी एक-एक बूंद मानव संस्कृति व सभ्यता के विकास के लिए कितनी महत्वपूर्ण है, यह क्षेम जी जैसा दृष्टा कवि ही समझ सकता है। कृष्ण द्वैपायन महाकाव्य श्रीपाल सिंह क्षेम की काव्य साधना की सर्वोत्तम परिणति है।
भारतीय संस्कृति को आकार देने में वेदव्यास जी की भूमिका आधारभूत रही है। महर्षि वेद व्यास ने चारो वेदों का संपादन किया, 18 पुराणों की रचना की और महाभारत जैसा विराट महाकाव्य रचा। श्रीमद्भागवत गीता जिसे भारत का सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक व दार्शनिक ग्रंथ माना जाता है, महाभारत महाकव्य का ही अंश है। भारतीय संस्कृति के निर्माण व विकास में व्यास जी के ग्रंथो की केंद्रीय भूमिका रही है। हिंदी काव्य- परंपरा में अनेक चरित्र प्रधान महाकव्य रचे गए, किंतु महर्षि वेद व्यास जैसा महान चरित्र कैसे उपेक्षा का शिकार हो गया? श्रीपाल सिंह क्षेम अपनी सूक्ष्म व गहरी अंतर्दृष्टि से महर्षि वेद व्यास के चरित्र को पकड़ते हैं तथा गहन साधना व संधान से “कृष्ण द्वैपायन” महाकाव्य जन मानस को उपलब्ध कराते हैं। वे भारत की विशाल संस्कृति गंगा में पाठकों को अवगाहन कराते हैं।
आध्यात्मिक, दार्शनिक व सांस्कृतिक चेतना से समृद्ध कवि ही महर्षि वेद व्यास के दर्शन और चिंतन का समग्रता में निदर्शन करा सकता है। श्रीपाल सिंह क्षेम एक ऐसे चरित्र को खोजते हैं जो सार्वभौमिक सांस्कृतिक जीवन दृष्टि की पुनर्स्थापना करता है। क्षेम जी प्रबुद्ध जनों का ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं कि महर्षि व्यास के साहित्य के अध्ययन और अनुशीलन से ही हम अपनी सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा की बुनियाद को समझ सकते हैं।
“भारत भारती होगी ,जहां जहां व्यास वहां वहां पास मिलेगा। व्यास को ढूंढने में ही हमें निज संस्कृति का इतिहास मिलेगा।”
भारत सामासिक संस्कृति का देश है। इस सामासिक संस्कृति ने न जाने कितनी संस्कृतियों को अपने में समाहित किया है। बकौल हजारी प्रसाद द्विवेदी” रवींद्रनाथ ने इस भारतवर्ष को ‘महामानव समुद्र’ कहा है। विचित्र देश है यह! असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्व आए – न जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गईं। जिसे हमें हिंदू रीति-नीति कहते हैं, वह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है।”
श्रीपाल सिंह क्षेम विराट सांस्कृतिक बोध के कवि हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह उन्होंने भी भारतीय परंपरा और संस्कृति का गहन अनुशीलन किया है। परंपरा और संस्कृति के अनुशीलन के बिना कृष्ण द्वैपायन जैसे वैचारिक महाकाव्य का सृजन ही संभव नहीं था। भारत की सम्मिश्रित, समृद्ध संस्कृति का अनुपम चित्र क्षेम जी ने कितनी सहजता और सरलता से साकार कर दिया है।
“राम बनी ,कभी श्याम बनी कभी बुद्ध बनी ,कभी युद्ध बनी सीता बनी कभी, गीता बनी कभी राधा के राग रही रंग -राती धर्म में, कर्म में, नीति के मर्म में वर्म बनी,मन को रही भाती व्यास के पुण्य- प्रयास तले मुस्काती रही यह संस्कृति- बाती।”
संस्कृति सतत प्रवाहमान रहती है। यह प्रवाह ही समय-समय पर व्याप्त हो गई रूढ़ियों को काट- छांट कर पृथक करता रहता है और संस्कृति समय के साथ आधुनिकता और परंपरा में सामंजस्य स्थापित करते हुए अविरल बहती रहती है। भारतीय संस्कृति को छतिग्रस्त करने, दूषित करने और यहां तक कि विनष्ट करने के अथक प्रयास हुए। न जाने कितने आक्रमण हुए, न जाने कितने बौद्धिक षडयंत्र रचे गए किंतु भारतीय संस्कृति के प्रवाह को बांध नहीं पाए। पश्चिम ने इस दिशा में सुनियोजित और संगठित अभियान चलाया। औपनिवेशिक काल में भारत के सांस्कृतिक इतिहास को मिटाने के हर संभव प्रयास हुए। रूढ़ियों को संस्कृति के मानदंड के रूप में स्थपित किया गया। श्रीपाल सिंह क्षेम इस सुचिंतित षडयंत्र को स्पष्टता से रेखांकित करते हैं।
“कहते हैं कुछ लोग कि व्यास से
मानव को मृषा -मूढ़ मिली है।
जाति, कुजाति, सुजाति, प्रजाति के भेद की शोषण गूढ़ी मिली है।
सत्य है व्यास ने मोड़ी परंपरा,
झूठ है व्यास से रूढ़ी मिली है।
जिस प्रकार जयशंकर प्रसाद ने कामायनी महाकव्य में दर्शन को घुलाया है, ठीक उसी प्रकार श्रीपाल सिंह क्षेम ने भी कृष्ण द्वैपायन महाकाव्य में दर्शन को बड़ी सहजता से घोल दिया है। क्षेम जी के महाकव्य में जीवन व जगत संबंधी दर्शन के महत्वपूर्ण पक्षों का सुन्दर निर्दशन होता है। एक स्वस्थ संस्कृति व समाज का विकास आध्यात्मिकता व भौतिकता के समन्वय से ही हो सकता है।
“यह विश्व कर्म है, इसके उभय रूप होंगे,
इस भौतिक के ही साथ लगा आध्यात्मिक भी। यह एक कृष्टि जो धरा पृष्ठ पर चलती है, जो मानसिक है, बौद्धिक भी है, परमात्मिक भी।”
महर्षि वेद व्यास जी ने वेदों का संकलन किया, पुराणों का लेखन किया साथ ही महाभारत जैसा विशद महाकाव्य रचा। इन सबके पीछे मूल उद्देश्य यही था कि भारतीय संस्कृति और ज्ञान परंपरा को कभी ज्योति की कमी न हो। भारत संस्कृति का सूर्य बनकर समूचे विश्व को आलोकित करता रहे। इसी उदात्त उद्देश्य को पोषण देने के उद्देश्य से, उसे साकार करने के लिए श्रीपाल सिंह क्षेम ने कृष्ण द्वैपायन महाकाव्य की रचना की। यहां महर्षि वेद व्यास और श्रीपाल सिंह क्षेम का सांस्कृतिक स्वप्न परस्पर संघनित हो कर एक हो गए हैं।
“समता, ममता, समरसता निज पाथेय बने,
यह वर्ण -जाति का भेद मान गतमान बने।
वेदों की शत शारदी हमें जो ज्योति मिली,
वह ज्योति विश्व में संस्कृति का दिनमान बनें।”
श्रीपाल सिंह क्षेम ने “कृष्ण द्वैपायन “जैसे वैचारिक महाकाव्य की रचना कर एक ओर कामायनी के बाद क्षीण हो गई महाकाव्य लेखन की परंपरा पुनर्जीवित किया, वहीं दूसरी ओर आज के वैश्वीकरण, नव- उपनिवेशवाद, उपभोक्तावादी व बाजारवादी संस्कृति के दौर में उठे सांस्कृतिक अस्मिता के संकट के समानांतर भारतीय संस्कृति -गंगा के पुनरुद्धार का भगीरथ प्रयास किया है।
डॉ माधवम सिंह “असिस्टेंट प्रोफेसर” हिंदी विभाग
शहीद स्मारक राजकीय पी. जी. कॉलेज, यूसुफपुर, गाज़ीपुर uh