जहाॅं रहो तुम बहार जाए (ग़ज़ल)

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बुलंद रखना यूँ हौसला की कोई भी मुश्किल हो हार जाए
तुम्हे मुबारक नया ये मौसम जहाँ रहो तुम बहार जाए

मुझे सहारा ज़रा न देना मै पार आऊँ या डूब जाऊँ
भँवर में लाकर के मेरी किस्मत मुझे अकेली उतार जाए

कोई तो अपने हो पास ऐसा कि जिससे झगडूँ कि जिससे रूठूँ
करूँ जो ज़िद बचपने के जैसी, मै जीत जाऊँ वो हार जाए

कहो मसीहा से मेरे जाकर यही समय है हिसाब कर ले
ज़हर हो जितना ज़बां में उसकी वो पूरा पूरा उतार जाए

मुझे हैं प्यारी वो सब व्याथाएं जो मुझमें भरती हैं प्राण रोकर
मुझे है आदत के घाव रिसकर उदासी गहरी पसार जाए

वंदना “अहमदाबाद”

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