जौनपुर! प्लास्टिक प्लास्टिक प्लास्टिक हर साल दुनिया भर में करीब 380 मिलियन टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है और इसका एक बड़ा हिस्सा शहरों से नदियों में और फिर समुद्र में चला जाता है। अनुमान है कि हर साल 12 मिलियन टन तक प्लास्टिक समुद्र में जाता है। एक अध्ययन में कहा गया कि जलवायु परिवर्तन निस्संदेह हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण वैश्विक खतरों में से एक है। साथ ही प्लास्टिक प्रदूषण का वैश्विक प्रभाव भी पड़ रहा है। माउंट एवरेस्ट की चोटी से लेकर हमारे महासागर के सबसे गहरे हिस्सों तक प्लास्टिक फैला हुआ है। दोनों का हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है। 2019 में,ओईसीडी ने बताया कि प्लास्टिक ने वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 3.4% का योगदान दिया, जो लगभग 1.8 बिलियन टन है, मुख्य रूप से उनके उत्पादन और जीवाश्म ईंधन रूपांतरण के कारण। चिंताजनक रूप से, यह आंकड़ा 2060 तक दोगुना से अधिक होने की उम्मीद है। टीडी पीजी कॉलेज जौनपुर, प्राणी विज्ञान के शोधछात्र और जनपद के पत्रकार पंकज कुमार मिश्रा ने बताया कि वह प्लास्टिक ही है जिसने महासागरीय जैव विविधता को लगभग समाप्त कर दिया है, जलवायु परिवर्तन के साथ समुद्र के तापमान को गर्म करने और प्रवाल भित्तियों को तेजी से ब्लीच करना प्रारम्भ कर दिया है।प्लास्टिक प्राकृतिक आवासों और जैविक प्रजातियों के लिए घातक है। वनस्पति और जंन्तु दोनों समुदायों पर संकटों का मिश्रित प्रभाव अब अस्तित्व बचाये रखने की समस्या को बढ़ा रहा है। यह बहस का मामला नहीं है कि कौन सा मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण है, यह पहचानना है कि भीषण गर्मी (अधिक तापमान) और बढ़ता प्लास्टिक ये दो संकट आपस में जुड़े हुए हैं और इनके लिए संयुक्त समाधान की आवश्यकता है। अध्ययन से पता चलता है कि कैसे ज्यादा तापमान और जलवायु परिवर्तन कमजोर प्रजातियां और उनके आवासों पर प्रभाव डाल सकते हैं, समुद्री कछुओं और कोरल को भी प्लास्टिक प्रदूषण से अब खतरा बढ़ गया है।इसमें से 60% प्लास्टिक शहरों से और 30 % कस्बे से बारिश के पानी के साथ समुद्र में जाएगा। प्लास्टिक प्रदूषण का जलीय जैव विविधता पर विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है। जिसमें हर एक जीव द्वारा गलती से प्लास्टिक की थैलियों को निगलने से लेकर माइक्रोप्लास्टिक से प्रदूषित पूरे मानव जाति तक शामिल हैं। दुनिया भर में इम्पोटेंसी के मामले बढ़े है। जलीय जीव, जिनमें समुद्री और स्वच्छ जलीय मछलियाँ, समुद्री पक्षी, समुद्री कछुए और समुद्री स्तनधारी शामिल हैं, जो प्लास्टिक के मलबे को निगल रहें हैं या उसमें उलझ कर समाप्त हो रहें हैं। अनुमान है कि हर साल 100 मिलियन से ज़्यादा समुद्री जीव प्लास्टिक कचरे से मारे जाते हैं। यह जीव ऑक्सीजन उत्पन्न करके हमें देते है। जिसके चलते प्लास्टिक के उत्पादन से 2015 से 2020 के बीच ग्रीनहाउस (जीएचजी) में लगभग 5600 करोड़ मीट्रिक टन से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होने का अनुमान लगाया गया है, जो कि पूरे शेष कार्बन बजट का 10 से 13 फीसदी है। 2050 तक समुद्री जीव से ज़्यादा प्लास्टिक होगा, हमारे ऑक्सीजन का आधा हिस्सा समुद्र से ही आता है। ऑक्सीजन के दोनों श्रोत पेड़ और समुद्र दोनों ही अंतिम सांस ले रहे है। समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के वैश्विक मुद्दे एक दूसरे को बढ़ा रहे हैं। दोनो मिलकर खतरनाक चक्र बना रहे हैं, वैज्ञानिकों के द्वारा सरकारों और नीति निर्माताओं को इन दो मुद्दों को एक साथ निपटाने का आग्रह किया जा रहा है। बढ़ती गर्मी, और कम होती नमी के आपसी संबंध में प्लास्टिक वृद्धि और पॉलिमर्स (प्लास्टिक और रबर जैसे पदार्थ, जो लंबी आणविक श्रृंखलाओं से बने होते हैं) के कमजोर होने को रेखांकित करता है। वैसे भी तापमान में जितनी अधिक वृद्धि होगी, पदार्थों के गुणों पर उतना ही अधिक असर पड़ेगा। पॉलीइथिलीन, पॉलीप्रोपाइलीन और पॉलीविनाइल क्लोराइड जैसे आम प्लास्टिक के साथ, 23 डिग्री सेल्सियस से 40 डिग्री सेल्सियस तक तापमान वृद्धि से 20% से अधिक की कठोरता में कमी आती है। एक टीम ने तीन महत्वपूर्ण तरीकों की पहचान की जिसमें जलवायु संकट और ग्रीन हॉउस प्रभाव का मुख्य कारण तेजी से कटे पेड़ो और प्लास्टिक को जिम्मेदार माना है, प्लास्टिक प्रदूषण समुद्री जैव विविधता के नुकसान से जुड़ा हुआ है। पहला यह है कि प्लास्टिक अपने पूरे जीवन चक्र में उत्पादन से लेकर निपटान तक वैश्विक ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) में कैसे योगदान देता है।दूसरा यह दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े बाढ़ और आंधी जैसे चरम मौसम प्लास्टिक प्रदूषण को कैसे फैलाएंगे और इसे बदतर करेंगे। प्लास्टिक प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव हमारे महासागर, समुद्र और नदियों के लिए प्रमुख मुद्दे रहे हैं। तीसरा बिंदु समुद्री प्रजातियों और पारिस्थितिकी तंत्र की जांच करता है जो विशेष रूप से दोनों की वजह से कमजोर पड़ता है। जलवायु में हो रहे बदलावों के चलते पहले से ही तूफान और बाढ़ सहित चरम मौसम की घटनाएं अधिक हो रही हैं, जो भूमि और समुद्र के बीच कचरे के फैलने को बढ़ा रहा है। इसके अलावा, समुद्री बर्फ माइक्रोप्लास्टिक के लिए एक जाल का काम करती है, जैसे ही गर्मी बढ़ती है बर्फ के पिघलने पर प्लास्टिक समुद्र में चला जाता है। उधर इंग्लैंड की यूनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल द्वारा किए गए शोध में पेड़ों की मास्टिंग और उनके बीजों को खाने वाले कीटों के बीच जटिल संबंधों पर जलवायु के प्रभाव का पता चला है। मास्टिंग वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा पेड़ साल-दर-साल अलग-अलग मात्रा में बीजों का उत्पादन करते हैं। कई पेड़ों की प्रजातियों में यह विशेषता पाई जाती है, जिनमें ओक, बीच, चीड़ और स्प्रेज़ शामिल हैं। यह प्रक्रिया फायदेमंद होती है क्योंकिअकाल के वर्षों ' के दौरान, बीजों को खाने वाले जीव जैसे पतंगे आदि भूखे रह जाते है, जिसके कारण उनकी संख्या कम हो जाती है। जबकि
बम्पर वर्षों’ में, बीज का उत्पादन इतना अधिक होता है कि यह बीजों को खाने वाले कीटों को भरपूर भोजन प्रदान करता है। बीज का उत्पादन अधिक होने के कारण इनके जमने की संभावना बढ़ जाती है जिससे ये अगली पीढ़ी के पेड़ों के रूप में उग सकते है। हालांकि, नेचर प्लांट्स में प्रकाशित बीच ट्री सीड प्रोडक्शन के एक अध्ययन में पाया गया कि गर्म तापमान के कारण बीज उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ, साल-दर-साल बदलाव हो रहा है। विशेष रूप से अकाल के वर्षों में बीज उत्पादन में कमी आई है। इस प्रकार बीज उत्पादन में जलवायु के प्रभाव से होने वाली वृद्धि से बीज खाने वाले जीवों को फायदा होता है, इसका पेड़ पौधों को किसी तरह का कोई लाभ नहीं होता है। यूनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल स्कूल ऑफ एनवायर्नमेंटल साइंसेज के सह-अध्ययनकर्ता डॉ. एंड्रयू हैकेट-पैन ने कहा कि यह अध्ययन यह समझने के लिए महत्वपूर्ण है कि बीच के पेड़ों पर जलवायु परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ रहा हैं। क्या जलवायु परिवर्तन से पेड़ों के बीज उत्पादन में वृद्धि हो रही है? पेड़ की संख्या तेजी से घट रहीं जो चिंताजनक है।