त्यौहार हो या मुसीबत, अपना सब कुछ भूलकर समाज के लिए खड़ी रहती है वर्दी
संवाददाता : निशांत सिंह
“हां, मैं पुलिस हूं… तभी आप अपने परिवार के साथ चैन से सो पाते हैं।”
यह दर्द उन पुलिसकर्मियों का है जो दिन को दिन और रात को रात नहीं समझते। नींद, भूख, प्यास, अपना सुख-चैन तक कुर्बान कर जनता की रखवाली करते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि जब वही पुलिस समाज की रक्षा करती है, तो अक्सर उन्हीं पर आरोप लगा दिए जाते हैं— रिश्वतखोरी के, ईमानदारी पर सवालों के।
सोचिए, यदि पुलिस सचमुच अपनी जिम्मेदारी छोड़ दे तो समाज में कैसी अराजकता और हैवानियत पसर जाएगी, जिसकी कल्पना तक करना मुश्किल है।
त्यौहारों पर भी छुट्टी नहीं, बस वीडियो कॉल से घरवालों को बधाई
जहां एक ओर लोग दीपावली, होली, तीज या गांव का मेला परिवार के साथ मनाने के लिए छुट्टियां लेकर घर पहुंचते हैं, वहीं पुलिसकर्मी ड्यूटी पर तैनात रहते हैं। त्योहारों की खुशियों में शामिल होने के लिए उनके पास न छुट्टी होती है, न समय। कभी-कभी तो फोन पर एक छोटी-सी बधाई देने तक का वक्त नहीं मिलता। जनता कह देती है– “सरकार वेतन देती है, तो ड्यूटी करनी ही होगी”। लेकिन सवाल है—क्या सिर्फ पुलिस और सैनिकों के लिए ही ये त्याग? बाकी सरकारी नौकरियों पर कोई उंगली क्यों नहीं उठाता?
बारह घंटे की ड्यूटी और खाना सिर्फ आलू की भुजिया-पूरी
आज का एक ताज़ा दृश्य चंदौली जनपद के बलुआ थाना क्षेत्र का है। कीनाराम बाबा की जन्मस्थली पर पुलिस बल की तैनाती थी। वहां ड्यूटी पर लगे जवानों को 12 घंटे की सेवा के बीच सिर्फ सूखी आलू की भुजिया और गिनी-चुनी चार पूरियां एक डिब्बे में परोसी गईं। सवाल उठता है कि मनरेगा मजदूर तक को मनमाफिक नाश्ता-पानी दिया जाता है, लेकिन समाज की रक्षा करने वाली पुलिस को ऐसी परिस्थितियों में क्यों रखा जाता है?
समाज को सोचना होगा
यह सच है कि पुलिस भी हमारे ही बीच के इंसान हैं। परिवार से दूर, आराम-चैन से वंचित, त्योहारों से महरूम—सिर्फ इसलिए कि हम और आप शांति से जीवन बिता सकें। ऐसे में समाज का कर्तव्य बनता है कि वह पुलिस के त्याग और कठिनाइयों को समझे और उनकी समस्याओं पर भी आवाज़ उठाए।