माँ….मुझे याद नहीं है….!
पिछली किस दिवाली पर,
तुमने दीए जलाकर….अँधेरी रात में..
उल्टे दिए पर..काजल इकट्ठा किए थे
फिर सुबह सुपौली से….!
सभी दलिद्दर भागते हुए,
मेरे संग….पूरे परिवार को….
खुद के हाथों से….
तूने काजल लगाया था…
साथ ही गाय के घी में….!
फेंट कर….पूरे साल के लिए….
सुरक्षित भी रखा था….
दिवाली वाला काजल….
माँ….मानो या न मानो….!
तेरे इसी जतन से ही तो,
सुरक्षित रहते थे हम सभी लोग
दुनिया भर की बुरी नजर से,
दुनियावी कोप-कुदृष्टि से….!
माँ अब तो तू मेरे लाल को भी,
नहीं लगाती हो बुरी नजर का टीका..
माँ….मुझे यह भी याद नहीं है कि…
पिछली किस होली पर….?
तुमने रंग खेलने के पहले वाले दिन
कच्ची सरसों वाली….!
उबटन लगाई थी…और…
उसकी मैल उपले पर रखकर,
होलिका में डालने के लिए दी थी…
केवल बुरी बलाओं से….!
हम सबको बचाने को…..
माँ….अब तो तू मेरे लाल की….!
मालिश-बलैया नहीं करती हो….
चलो मान लिया माँ….!
तेरी उम्र नहीं रही….पर….
मेरी शिकायत है…..
तुमने बहू को…क्यों नहीं सिखाया..?
उस पर…हण्टर क्यों नहीं चलाया..?
क्यों लगवाती हो उससे सुरमा….?
आन देश का मिलावटी तेल….!
या फिर…आर्टिफिशियल काजल…!
क्यों मँगवाती हो बाजार से….?
आर्टिफिशियल आइटम….
क्यों करने देती हो…..?
ब्यूटी पार्लर वाला मेकअप….
और…सब कुछ जानते हुए भी….
उसे बना देती हो ज़ाहिल….!
माँ तुम्हें कैसे बताऊँ….?
तुम्हारे काजल की चमक…और….
कच्ची सरसों वाली गंध का एहसास
मेरे लिए….आज भी है खास….!
मेरे लिए….आज भी है खास….!
रचनाकार….
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ