जब मन की भी न मानता तो कहते कुछ नहीं
दुनिया का देखा माजरा तो कहते कुछ नहीं
वो किसके पास जाके रहे किसके साथ है
धोखाधड़ी ही वाकया तो कहते कुछ नहीं
इतनी पकड़ थी ज़ोर की, चिड़िया का दम घुटा
अब हाथ उसका काँपता तो कहते कुछ नहीं
आदत में ही शुमार है लाचार बन रहो
कितनों से रहते माँगता तो कहते कुछ नहीं
रिश्ते में स्वार्थ हद से ज़ियादा ही बढ़ गया
अवसाद ख़ूब बाँटता तो कहते कुछ नहीं
कल तक हमारे पास था वो ख़ास भी बहुत
अब हमको ही न जानता तो कहते कुछ नहीं
“वंदना” अहमदाबाद।