वसन्त दृष्टि—

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शरद बीती ,हरी-हरी दूब नें जब सिर उठाया,
तब मैंने देखा वसन्त आया।
मेड़ो की मिट्टियों ने जब सरहद का भेद मिटाया,
तब मैंने देखा वसन्त आया।
ठूंठ पड़े टेसुओं में जब कलियों ने शोर मचाया,
तब मैंने देखा वसन्त आया।
मधुमक्खी की सेना नें जब मंजरियों पर वितान फैलाया,
तब मैंने देखा वसन्त आया।
गली गाँव के बच्चों ने अरे कटी पतंग का जब शोर मचाया,
तब मैनें देखा वसन्त आया।
बूढों की आँखों मे जब यौवन उमंग ने सर उठाया,
तब मैंने देखा वसन्त आया।
आलिंगन में उन्मत्त प्रेमियों के मध्य जब मैंने लाल पलाश पाया,
तब मैंने देखा वसन्त आया।
भीख माँगते भिक्षुकों के मन मे उम्मीद बंधा पाया,
तब मैंने देखा वसन्त आया।
रोग शैय्या पर लेटे हुए रोगियों में जिजीविषा का संकल्प आया
तब मैंने देखा वसन्त आया।
प्रियम मिश्रा (…प्रियं)

2-
ख्वाहिशें…

एक दिन मैं जीवन से उसी तरह विलुप्त होना चाहती हूँ
जैसे जीवन को विलुप्त करती है मृत्यु।
एक दिन मैं जीवन से उसी तरह ढल जाना चाहती हूँ
जैसे खिले दिन को ढालती है साँझ।
एक दिन मैं जीवन मे उसी तरह समाना चाहती हूँ
जैसे बूंद को खुद में समाहित करती है मिट्टी।
एक दिन मैं जीवन से उसी तरह विलीन हो जाना चाहती हूँ
जैसे अस्थि कलश की राख को विलीन कर देती है गंगा ।
एक दिन मैं जीवन को उसी तरह जीना चाहती हूँ
जैसे वियोग में जीता है प्रेम ।
एक दिन मैं जीवन से उसी तरह झड़ जाना चाहती हूँ
जैसे पुराने को झाड़ता है पतझड़।

एक दिन मैं फिर लौट आना चाहती हूँ
जैसे लौट आते हैं सिद्धार्थ बनकर बुद्ध ।
एक दिन मैं फिर उग आना चाहती हूं
जैसे रात्रि के बाद उग आता है सूर्य ।
एक दिन मैं फिर खिल जाना चाहती हूँ
जैसे पतझड़ बाद खिल आता है बसन्त ।।
…प्रियं

प्रियम मिश्रा
हिंदी नेट एवं जेआरएफ
साहित्य सेवा व लेखन में रुचि।आज़मगढ़, उ.प्र.

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