“चुनावी हलचल” राजनीति का देख के रंग, मतदाता हुआ दंग

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पूर्वांचल लाईफ/पंकज कुमार मिश्रा

जौनपुर! चुनाव किस और जा रहा है इसे लेकर मतदाता अनभिज्ञ है। बात करें जौनपुर और मछलीशहर लोकसभा सीटों की तो चुनावी बयार पछुआ है की पूरवा इसका अंदाजा नहीं चल रहा। मछलीशहर में कार्यकर्ताओं का जोश ठंडा दिख रहा तो जौनपुर में सियासी हवा धन और रुतबे के बल पर गर्म प्रतीत हो रहीं। मछलीशहर में वर्तमान सांसद को टिकट दिया गया है जिसे लेकर अब बचे शेष दिनों में उन्हें रफ़्तार पकड़नी होगी क्यूंकि अपने सांसद प्रतिनिधियों के भरोसे चुनाव जीतने का सपना देखना बीपी सरोज के लिए बड़ी भूल साबित हो सकती है। वहीं सपा की प्रिया सरोज केवल सपा बाहुल्य क्षेत्रों में कैम्पेन करती दिखाई दें रहीं जों यह दर्शा रहा कि सब कुछ ठीक नहीं है। बसपा ऐसे में अच्छा कर जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पिछले एक साल पहले जब भी मैं किसी को कहता की ये चुनाव 2014 का रिजल्ट दोहराएगा तो विपक्ष का हार्डकोर समर्थक कहता था कि ऐसा पॉसिबल नहीं है लेकिन जैसे जैसे चुनाव आगे बढ़ता जा रहा तो लोग कहने लगे है कि इस बार रिजल्ट अप्रत्याशित होने वाला है। जहां एक और बीजेपी का कोर वोटर ख़ामोश है वही आईटी सेल सीन से नदारद सा है। बीजेपी का आम कार्यकर्ता ना सिर्फ़ शांत है बल्कि कुछ समय पहले दबी ज़ुबान से टिकटबटवारें के कुछ फैसलों का विरोध भी कर रहा था। पिछले एक दशक में पहली बार सामान्य वोटर खुल कर बात नहीं कर रहा है। विपक्ष के नीतियो से नुक़सान तो बता रहा है किन्तु चार सौ पार पर भी प्रश्नचिन्ह लगा रहा। मतदान प्रतिशत में कमी कुछ जगहों पर यह बता रहीं की साइलेंट वोटर कुछ नया करने जा रहें। तीसरी बार भी बीजेपी सरकार बनाने की स्थिति में है क्यूंकि विपक्ष पूरी तरह बिखर चुका है ऐसे में बस यह देखना है कि दो सौ तिरासी से कितना आगे.! भारत में चुनाव का सही आँकलन चाय या पान की दुकान पर हो सकता है जहां पर पिछले 10 सालों से कांग्रेस का सपोर्टर या तो ग़ायब था या मोदी सपोर्टरो के सामने बिलकुल साइलेंट था लेकिन इस बार ना सिर्फ़ वो खुल के आरक्षण और महंगाई जैसे मामलों का विरोध कर रहा अपितु इन मुद्दों को हटाने कि बात करने वालों का सपोर्ट भी कर रहा है। सिस्टम को गरिया भी रहा है और न्यूट्रल वोटर उसको सुन और समझ रहे है। ग्रामीण क्षेत्र में बेरोज़गारी एक बहुत बड़ी समस्या बन कर उभरी है उस पर थोड़े से संपन्न किसानों की वर्तमान युवा पीढ़ी खेती को बहुत ही कठिन और अलाभकारी मान कर खेती से दूर हो कर अन्य विकल्प के रूप में नौकरी या व्यवसाय का विकल्प तलाशने लगी है गाँवों के बीएड एमएड किए युवा मारे मारे फिर रहें । लगातार होने वाले पेपर लीक और घटती सरकारी नौकरी की वजह से इन लोगो ने आस पास के क़स्बो में कोई रिटेल शॉप ले कर छोटा मोटा रिटेल बिज़नेस डाल रखा है ताकि कटाई के समय ये खेती को थोड़ा समय दे सके और बाक़ी टाइम रिटेल से अपना जीवन यापन कर सके ।
पिछले एक दशक में बिग बिज़नेस हाउस ने अपने स्टोर छोटे शहरो से कस्बों तक में खोल दिये है तो रही सही कसर ऑनलाइन शॉपिंग के डिस्काउंट ने पूरी कर दी है इसकी वजह से रिटेल बिज़नेस एक दम खत्म होने के कगार पर है। खेती, नौकरी और रिटेल बिज़नेस के खात्मे ने ग्रामीण क्षेत्र के मध्यम वर्गीय लोगो के भविष्य को अंधकारमय बना दिया है और इसी भविष्य के डर से वो भक्त्ति और सांप्रदायिकता के भँवर से बाहर निकल कर विकल्प तलाश रहा है। परिवर्तन और सरकार की कृपा दृष्टि पर अपने उज्जवल भविष्य या इस अंधकार से बाहर निकलने की क्षीण सी आश लिए बैठा युवा वर्ग चुनाव में तीसरी बार सरकार बनने के बाद अपने लिए उत्थान चाह रहा। सांप्रदायिकता का प्रयोग विदेश से होते हुए कर्नाटक और अब दक्षिण भारत तक पहुँच चुका है। जनता के आर्थिक सम्मान में हुए नुक़सान को छोड़ दें तो मोदी सरकार नें काम बहुत उम्दा किया। लेकिन लड़ाई अभी बहुत लंबी है और विपक्ष को सेल्फ गोल से बचते हुए बीजेपी के नैरेटिव से सावधान होते हुए बाक़ी चुनाव लड़ना है। सबसे बड़ी बात यह है कि ये लड़ाई अब कांग्रेस या विपक्ष की है ही नहीं ये लड़ाई माध्यम वर्ग के हर उस शख़्स की है जो विदेशी ताकतों और वामपंथी नीतियों की वजह से अपना डेली का जीवन बशर कठिनाई से पूरा कर पा रहा है। यह लड़ाई बेबसी के हर उस शत्रु के खिलाफ है जों पैसे लूटने के वजह से अपने मतदाता के इक्षा का गला घोटता रहा है। अगर माध्यम वर्ग को तिल तिल मरते हुए उस पल से बाहर निकलना है तो घर से बाहर निकलना पड़ेगा और जातिवादी नेरेटिव के ख़िलाफ़ वोट देना होगा और जब लड़ाई ख़ुद की है तो न्योते का इंतज़ार नहीं किया जाता है।

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