“शादी या फ़िर बर्बादी!”

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जो अपनी सादगी से संतुष्ट हैं उसे किसी दिखावे का लोभ नहीं होता।

आज कल की शादियों में खाने की बरबादी से लेकर हमारे अन्य प्राकृतिक संसाधनों को इस क़दर बर्बाद किया जाता है जैसे अब आगे ज़िन्दगी ही ख़त्म है। परिवार वाले तो “जा सिमरन जा ,जी ले अपनी ज़िंदगी ” के तर्ज़ पर ऐसे पैसे बहाते हैं कि अब ये आख़िरी बार अपने बच्चों पर प्यार लुटाना हो। आख़िर शादी बार बार तो नहीं होती और फ़िर गुप्ता जी और पांडें जी से ज़्यादा भव्यता दिखनी चाहिए अपने घर की शादी में! आख़िर क्यों शादी को लोगों ने अपने सोशल और इकोनामिक सिम्बल स्टेटस मान लिया है? पानी की तरह सिर्फ पैसे नहीं बहते ,हमारे संसाधन भी नाले में बह जाते हैं। उपभोक्ता वाद की चपेट में आये हम सब अब उन रस्मों को जिसमें गोद भराई, हल्दी, मेंहदीं , महिला संगीत जो कि अभी कुछ दशकों पहले साधारण तरीके से घरों में कर लिये जाते थे , जोकि अब महंगें होटलों में करने को मजबूर हैं।
इसके अलावा कुछ नये रस्म जैसे प्री और पोस्ट वेडिंग शूट ने तो और कमर तोड़ रखी है। फ़िल्मों और सीरीयल्स द्वारा हमारे बच्चों का ब्रेन वाश हो चुका है। न चाहते हुए भी परिवार वालों को दबाव में आकर ये सारे चोंचलें करने ही पड़ते है।
नतीजा दो से तीन बार होटलों का खर्च और हर बार खाने की बरबादी के साथ प्लास्टिक डेकोरेशन और प्लास्टिक प्रदूषण। सिर्फ शादी के जोड़े ही नहीं पूरा का पूरा परिवार तीन-चार सेट नये कपड़े खरीदता हैं और कपड़े भी ऐसे सिंथेटिक चमकीले कि दोबारा कभी पहन ही नहीं सकते। इवेंट्स मैनेजमेंट और कोरियोग्राफी के प्रचलन ने तो और भी आफ़त कर रखी है। शादी की पवित्रता और सादगी,इस तड़क भड़क और चमक-दमक में कहीं पीछे छूटती जा रही है। क्या हम प्रकृति और पर्यावरण को ध्यान में रखकर अपनी खुशी और उल्लास व्यक्त नहीं कर सकते? क्या विवाह जैसे धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था को सच में धार्मिक और सामाजिक तरीके से नहीं सम्पन्न कर सकते? आपकी सादगी ही आपके आत्मविश्वास का परिचय है। जो अपनी सादगी से संतुष्ट हैं उसे किसी दिखावे का लोभ नहीं होता।

 लेखिका - कंचन मिश्रा 'सुरवन्दिता'

पर्यावरण प्रेमी, स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ, मम्फोर्डगंज, प्रयागराज,उ.प्र.

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