ख़ुद से कहती हूँ यार चल फिर से
लिक्खा तकदीर का बदल फिर से
मेरी आवाज़ घुट रही भीतर
चीख़ पाऊँगी क्या मैं कल फिर से
याद हर बात रक्खी जाएगी
स्याह पन्नों का होगा हल फिर से
जब हैं आयोग धाँधली करते
यानी अब हो उथल-पुथल फिर से
इस परीक्षा में हम नहीं अव्वल
ख़्वाब का टूटा है महल फिर से
मैं अँधेरों को देख सकती हूँ
रौशनी कर रही है छल फिर से
रद्द कर दी गई परीक्षाएँ
हो गई है कहीं नक़ल फिर से
जिन को नाराज़ होना है हो लें
कल कहूँगी कोई ग़ज़ल फिर से
वंदना “अहमदाबाद”