कोई भी (ग़ज़ल)

Share

दुःख बताया नहीं है कोई भी
याद आया नहीं है कोई भी

बात हम से करो हो ये कह कर
अपना पाया नहीं है कोई भी

बिन चले चाहते हो मंज़िल को
ऐसा रस्ता नहीं है कोई भी

यानी सब अनसुनी किये सुनकर
तिलमिलाया नहीं है कोई भी

अब भी कश्ती को थाम लो अपनी
पार लाता नहीं है कोई भी

उस दिये से जलेंगें सौ दीपक
जो बुझाया नहीं है कोई भी

फिर रुलाकर हमें ही वो बोले
दिल दुखाया नहीं है कोई भी

काम के वक़्त याद करते पर
बाद मिलता नहीं है कोई भी

भूल ग़लती के जैसे ज़ेहन में
याद रखता नहीं है कोई भी

अब भी हैं शब्द अर्थ में उलझे
भाव पढ़ता नहीं है कोई भी

बाद तेरे तो ‘वंदना’ को भी
फिर रुलाया नहीं है कोई भी

वंदना
अहमदाबाद

2 thoughts on “कोई भी (ग़ज़ल)

  1. बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह शुभकामनाएं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!